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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ईश्वर,खुदा और GOD की भाषा (लघुकथा)

खुदा को उर्दू के सिवा कुछ न आता था, ईश्वर संस्कृत तो जानते ही थे, हिंदी भी धीरे-धीरे सीख गए थे और God तो अंग्रेजी छोड़ कुछ बोलते-सुनते ही न थे. पर प्रॉब्लम महसूस हो रही थी सबको धीरे-धीरे. धरती पर धार्मिक एकता बढ़ रही थी, खुदा, God और भगवान के बन्दे एक हो रहे थे, आपस में घुल-मिल रहे थे.एक दिन उपरवालों ने भी सोचा की हम देवता लोगों को भी आपस में घुलना-मिलना चाहिए. सो एक दिन उपरवालों की मीटिंग शुरू हुई. अध्यक्षता का जिम्मा God को सौपा गया. सभा की शुरुआत हुई. God बोले- "Good morning to all of You." थोडा-सा भगवान को समझ में आया, थोडा खुदा से discuss कर के क्लिअर किया की कोई गाली-वाली तो नही दी गई है. God ने छोटी सी स्पीच दी, खुद बोले, खुद समझे. ईश्वर की बारी आयी, वसुधैव कुटुम्बकम का नारा लगाया. धाराप्रवाह संस्कृतनिष्ठ हिंदी शुरू हुई. God परेशान, खुदा हैरान, खुदा थोडा-बहुत समझे. खुदा आये, खुदाई की चर्चा शुरू हुई. ईश्वर को लगा की धरती पर कहीं खुदाई करवानी है, बैठे-बैठे ही बोले- हो जायेगा भाई, परेशान न हो. God बेचारे मुह ताकते हुए बैठे रहे. सब समझ रहे थे की वो कुछ नही समझ रहे

ये दुनिया कैसी दुनिया है ?

इस दुनिया में फूल हुए कम कांटे ज्यादा हैं फूल बचे हैं जो भी वो सब हारे-मांदे हैं | अच्छे लोग बने हैं मानो प्राणी चिडियाघर के और बुरे लोगों के हाथों पैने भाले हैं | देखा है अच्छे लोगों को मैंने घुटते तिल-तिल और बुरे लोगों के घर में खुशियाँ नाचे हैं दुनिया बन गयी ऐसी जिसमें चांदी शैतानों की और भले लोगों को उनकी जान के लाले हैं कभी-कभी शक होता है क्या है कोई ऊपर में या फिर उसकी आँखों पर मोटे-से ताले हैं आश न खो दुनिया बदलेगी दिल ये कहता है. देखे इस आशा पर कब तक हम जीनेवाले हैं

ओ माँ! तुम सुन रही हो ना!

ओ माँ! मेरी आवाज सुनो मैं तुम्हारी बगिया में अन्खुवाता बिरवा हूँ मत तोड़ने दो इसे किसी नादान को मत रौंदने दो इसे किसी हैवान को. ओ माँ! पुरुष बेटे के जन्म पर खुशियाँ मनाता है तुम क्यों नही खुशियाँ मनाती बेटियों के जन्म पर क्या इतनी कमजोर हो तुम की मेरे दुनिया में आने से पुरुषों की इस दुनिया में खुद को असुरक्षित महसूस करती हो? ओ माँ! भूलती क्यों हो यह बात की गर्भ में तुम भी रही होगी एक दिन पुरुषों के दवाब से झुककर तुम्हारी माँ ने यदि गर्भ में ही तुम्हारी हत्या होने दी होती, तो क्या होता? सृष्टि की आदिमाता ने यदि लड़कियों की भ्रूण-हत्या होने दी होती तो शायद मानव जाति कब की लुप्त हो चुकी होती. ओ माँ! जबतक मैं सुदूर अनंत में थी मैंने कुछ नही माँगा मगर, अब जब मैं तुम्हारे गर्भ में हूँ धरा पर जन्म लेना हक़ है मेरा मेरे इस हक़ के लिए तुम्हे लड़ना होगा उनसे जो स्रष्टा नही हैं मगर संहार में लगे हैं. ओ माँ! लड़की जनने की आशंका से क्यूँ मुरझाई हो तुम? क्या खुद पर विश्वास नही, या मुझ पर विश्वास नहीं? पुरुष बेटों पर गर्व करता है तुम बेटियों पर गर्व करना सी

ईमान मर नहीं सकता

 आज के इस भयानक दौर में, जहाँ ईमान की हर जुबान पर खामोशी का ताला जडा है. चाभी एक दुनाली में भरी सामने धरी है , फ़िर भी मैं कायर न बनूँगा अपनी आत्मा की निगाह में फ़िर भी मैं, रत्ती भर न हिचकूंगा चलने में ईमान कि इस राह पे। मैं अपनी जुबान खोलूँगा मैं भेद सारे खोलूँगा- (बेईमानों- भ्रष्टाचारियों की काली करतूतों के ) मैं चीख-चीख कर दुनिया भर में बोलूँगा- ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है। मैं जानता हूँ कि परिणाम क्या होगा- मेरी जुबान पर पड़ा खामोशी का ताला बदल जाएगा फांसी के फंदे में और फंदा कसता जायेगा- भिंच जायेंगे जबड़े और मुट्ठियाँ आँखें निष्फल क्रोध से उबलती बाहर आ जाएँगी प्राण फसेंगे, लोग हसेंगे पर संकल्प और कसेंगे. देह मर जायेगा मगर आत्मा चीखेगी, अनवरत, अविराम- ''ईमान झुक नहीं सकता, ईमान मर नही सकता, चाहे हालत जो भी हो जाये, ईमान मर नही सकता, ईमान मर नही सकता. -2004 - (स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में भष्टाचार को उजागर करने पर जान से हाथ धोने वाले 'यथा नाम तथा गुण' सत्येन्द्र डूबे तथा ईमान की हर उस आवाज को समर्पित जिसने झुकना गवारा ना किया बेईमानी

दुनिया को कह दो की गाँधी को अंग्रेजी नहीं आती

आजादी की पूर्वसंध्या में एक महान मनीषी आत्मा ने दुनिया के बहाने अपने देशवासियों को पैगाम दिया था भाषिक गुलामी की केंचुले उतार फेंकने को उनके देशवासी गुलामी की केंचुल निकालने की आधी-अधूरी कोशिश में, आज तक अंग्रेजी की खूंटी से उल्टे टंगे हैं. मामला क्या है? केंचुल है कि उतरती ही नही या कि केंचुल के अन्दर का प्राणी केंचुल से बाहर आना ही नहीं चाहता. गाँधी के लिए मातृभाषा माँ-जैसी थी कहा था गाँधी ने की माँ जैसी भी हो बच्चे को जीवनदायी अमृत माँ से ही मिलता है पर हमारी बोतलबंद दूध पर पली पीढी को माँ के दूध के स्वाद और मातृभाषा की मिठास का क्या पता बोतलबंद दूध की तरह बोतलबंद भाषा भी समा चुकी है हमारी नस-नस में (क्षीण करती हुई हमारी जीवनीशक्ति को) सुना है की दो सगे भाइयों को विदेशी भाषा में बाते करते सुन मर्माहत हुए थे गाँधी कहा था की जिस देश के लोग इस कदर मानसिक गुलाम हों उस देश को आजादी मिलकर भी क्या खाक मिलेगी? और आज हमारे आजाद भारतवर्ष में ये आलम है की माँ-बाप अपने छोटे बच्चों के सामने अपनी भाषा में नही अंग्रेजी में बातें करते हैं ताकि अनायास ही सीख सके बच्चा फर्र-फर्र अंग्रेजी अपनी भाषा मे

कितनी भाषाओँ से कितनी बार

कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए मैंने जाना है की हर भाषा संजोये होती है एक अलग इतिहास, संस्कृति और सभ्यता की हर भाषा में उसके बोलने वालों की हर ख़ुशी और गम का सारा हिसाब-किताब मौजूद होता है. हर वो भाषा जो और भाषाओँ को मानती है बहन और नही रखती उनकी प्रगति से कोई डाह-द्वेष उनको आकर छलती है कोई साम्राज्यवादी भाषा कहती है की अब इस भाषा में नए समय को व्यक्त नही कर सकते, पर चिंता क्यूँ है, मैं हूँ ना! और धीरे-धीरे इक भाषा दूसरी भाषा को अपनी गुलामी करने को मजबूर करती है उनको छोड़ देती है उन लोगों के लिए जिनके मुख से अपना बोला जाना उसे नागवार है आखिर मजदूरों, भिखारियों, आदिवासियों, बेघरों, वेश्याओं, यतीमों, अनपढों या एक शब्द में कहे तो हाशिये पर जीने वालों के लिए भी तो कोई भाषा होनी चाहिए ना? कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए महसूसा है मैंने कितनी ममता होती है हर एक भाषा में कितनी आतुर स्नेहकुलता से अपनाती है वो हर उस बच्चे को जो उसकी गोदी में आ पहुंचा है बाहें पसारे, बच्चा- जिसे अभी तक तुतलाना तक नही आता नयी भाषा में. कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए म