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सर पे माँ की दुआओं का छाता रहा

जिंदगी उलझती रही, मैं उसे सुलझाता रहा | खुदा ने इश्क की दौलत थी बख्शी, लुटाता रहा || रोटी, कपडा, सर पे छत, नाकाफी थे इंसान को | होश सँभालने से मरने तक वो बस, दौलत जुटाता रहा || खुशी के मोती छोड़, दौलत के कंकड़ चुनता रहा इंसान | खुदा ऊपर से ये नादानी देख मुस्कुराता रहा || सफर में रहे हमसफ़र बन के सुख ओर दुःख | एक आता रहा, एक जाता रहा || बददुआओं की तेजाबी बारिशें, कई बार बरसी | शुक्र है, सर पे माँ की दुआओं का छाता रहा ||

धर्म के नाम पर अनगिन हैं मरे लोग

साथियों, इधर हाल में धार्मिक हादसों में मरने वाले लोगों कि संख्या काफी बढ़ी है..धार्मिक उत्सवों में जुटी भारी भीड़ को आजकल ये पता नही होता कि कब किसको मोक्ष मिलने का नम्बर आ जाये. कभी मंदिर, कभी मस्जिद, कभी चर्च..उपरवाला भी हादसों की इस बढती तादात को देख चिंताकुल होगा, ऐसा मुझे लगता है. हाल में शबरीमला में मकरज्योति देखने को जुटी भीड़ ओर वहां भगदड़ में मरे सैकड़ों लोगों को देख एक गज़ल १५ जनवरी को लिखी थी..आज संयोग से मिली तो सोचा कि आप लोगों के सामने पेश कर दूँ. इस गज़ल में खुदा शब्द उपरवाले का प्रतीक है..उसे खुदा कहे, ईश्वर कहे या फिर God के नाम से पुकारे, इस गज़ल की फरयाद हर किसी से है खुदा के खौफ से हरदम हैं डरे लोग | धर्म के नाम पर अनगिन हैं मरे लोग || जिंदगी इंसान की, कितनी सस्ती हो गई | कीड़े-मकोडों की जानिब हैं मरे लोग || खुदा के राज में भी अब जरा बदहाली है | फिर भी खुदा से खैर की दुआ हैं करे लोग || बिना डुलाये हाथ-पाँव, खुदा कुछ नहीं देता | फिर भी खुदा से भीख मांगते हैं फिरे लोग || खुदा भी दिन में दिया लेके ढूंढता है फिरे | कितने दुर्लभ हैं हो गए, दुनिया में खरे लोग ||

जिंदगी भूलभुलैया तो है जरुर मगर

बाहर की गर्मी गिला देती है | भीतर की गर्मी जिला देती है || इश्क के जाम की, मुझको नहीं तमन्ना है| साकी अनजान है, आकर के पिला देती है|| जब कभी दिल की कली मुरझाती है| प्रेम की बारिश, उसे फिरसे खिला देती है|| मैं तो करता हूँ उससे इश्क बेइंतहा| फिर वो क्यूँ बेमुरव्वती का सिला देती है || जब कभी जिंदगी मुरझाती है | उसकी मुस्कान जिला देती है || गैरों की सैकड़ों ठोकरों की परवा नहीं | अपनों की एक ठोकर भी हिला देती है || जिंदगी भूलभुलैया तो है जरुर मगर | भूले-बिछुड़ों को किसी मोड़ मिला देती है || (१३ अप्रैल २००४ को लिखित )