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अप्रैल, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना

एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | एक चिड़िया जो टूट कर भी टूटी न थी चिड़ा छोड़ चला उसे, फिर भी आस टूटी ना थी जग से रूठ कर भी खुद से वो अभी रूठी ना थी उसके सपनों ने फिर से सीखा चहचहाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | नन्ही चिड़िया ने सहे कितने जुल्मो-सितम जीती रही खूंखार दुनिया में वो सहम-सहम और उसपे, कि दुनिया ने नहीं किया कोई रहम चिडियाँ जीती रही भूल कर के पंख फैलाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना चिडियाँ जीती रही बरगद की कोटर तले साँझ ढलती रही, आस का दीपक नही ढले उसे अब भी था यकीं चिड़ा आएगा मगर दुनिया ने छीना उससे उम्मीदों का ताना-बाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | कितना रोई चिड़ी जब हुआ, उसका चिड़ा पराया रोती रही वो पर, आँखों से आंसू तक ना आया चिड़िया बुत बनी, वो बन गयी अपनी ही छाया दुनिया के कायदों ने छीना उसका मुस्कुराना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना चिड़िया घुटती रही, खुद में सिमटती रही अपने पंखों को फ़ैलाने से बचती रही थोड़ी-थोड़ी जिंदादिली उसकी रोज मरती रही बरगद रो देता था सुन के उसका दर्द भरा गाना | एक चिड़िया को फिर से मिल

शासन से अपना गिला भी क्या

शासन से अपना गिला भी क्या ? व्यवस्था से हमें मिला भी क्या ? भूख हमेशा आयी हमारे ही हिस्से , बदहाली का ऐसा सिलसिला भी क्या ? भूख से एक बच्चे ने दम तोड़ दिया , सुनके फाइल तो दूर, पत्ता तक हिला भी क्या ? कितने बगीचों को तुमने तबाह किया , मगर एक फूल तुमसे आजतक खिला भी क्या? तुमको वोट दिया, तुमने चोट दी बदले में | ये बताओ, बेमुरव्वती का ऐसा सिला भी क्या? बेबसों की आह को कैद करके रख सके, कहो मियां, है ऐसा कोई किला भी क्या? एक जिन्दा है, एक है पत्थर मगर, ठोकरें नियति है, नारी क्या शिला भी क्या? मुद्दतें हो गयी हैं हमको तौबा किये, आज दिल है, साकी सोच मत, पिला भी क्या.

ईमान मर नहीं सकता

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे जी के वर्तमान संघर्ष और उसमें लोगों की सहभागिता देख बड़ा ही सुकून भरा अनुभव हुआ. वास्तव में, हमारे देश में बेलगाम होते हुए भ्रष्टाचार को अगर नहीं रोका गया, तो फिर इस महान देश की महानता अतीत की याद भर बन कर रह जायेगी. आज से ७ साल पहले बिहार मे स्वर्णिम चतुर्भुज योजना मे हो रहे व्यापक भ्रष्टाचार को उजागर करनेवाले ईमानदार इंजिनियर श्री सत्यदेव दुबे को उनकी ईमानदारी की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ी थी. उस प्रसंग मे एक कविता लिखी थी – ‘ईमान मर नहीं सकता’. यह कविता सत्येन्द्र डूबे तथा ईमान की हर उस आवाज को समर्पित है जिसने टूट जाना मंजूर किया पर बेईमानी के आगे झुकना नहीं. उस कविता को एक बार फिर आप लोगों के समक्ष पेश कर रहा हूँ. ईमान मर नहीं सकता आज के इस भयानक दौर में, जहाँ ईमान की हर जुबान पर खामोशी का ताला जडा है और चाभी एक दुनाली में भरी सामने धरी है ; फ़िर भी मैं कायर न बनूँगा, अपनी आत्मा की निगाह में. फ़िर भी मैं, रत्ती भर न हिचकूंगा चलने में ईमान की इस राह पे। मैं अपनी जुबान खोलूँगा मैं भेद सारे खोलूँगा- (बेईमानों- भ्रष्टाचारियों की काली क

खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा

खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा | है क्या वजह, क्या दे रहा हूँ खुद को मैं कोई सजा || शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली | देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया || मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है | खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया || आँखें दुनिया से बंद कर मैं खुद में ही सिमटा रहा | औरों को परवा नहीं, पर, मैं ना ऐसे में मैं रहा || खुद से खुद को ये नसीहत देना अब है लाजमी | पीठ है अब तक दिखाई, अब दिखा, सीना तना |