हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है



हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है|

हर सन्नाटे में इक गूंज दबी होती है |

 

इन चीखों को, इन गूंजों को बिरले कोई ही सुनता है |

कुछ आवाजों की दस्तक बस, दिल के दरवाजे होती है|

 

जो सुनता है और गुनता है- बैचैनी में सर धुनता है |

जिसको सुनना था-वो बहरा, उसके कानों पर है पहरा |

 

फिर कोई भगतसिंह आता है, संग अपने धमाके लाता है |

बहरे कानों की यही दवा, ये सीख हमें दे जाता है |

 

इन चीखों को, इन गूंजों को, अपने दिल में घर करने दे |

सत्ता से जनता नहीं डरे, सत्ता को जनता से डरने दे |

 

टिप्पणियाँ

Rajendra kumar ने कहा…
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार के "रेवडियाँ ले लो रेवडियाँ" (चर्चा मंच-1230) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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