हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है
हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है| हर सन्नाटे में इक गूंज दबी होती है | इन चीखों को, इन गूंजों को बिरले कोई ही सुनता है | कुछ आवाजों की दस्तक बस, दिल के दरवाजे होती है| जो सुनता है और गुनता है- बैचैनी में सर धुनता है | जिसको सुनना था-वो बहरा, उसके कानों पर है पहरा | फिर कोई भगतसिंह आता है, संग अपने धमाके लाता है | बहरे कानों की यही दवा, ये सीख हमें दे जाता है | इन चीखों को, इन गूंजों को, अपने दिल में घर करने दे | सत्ता से जनता नहीं डरे, सत्ता को जनता से डरने दे |