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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है

हर चुप्पी में इक चीख छुपी होती है| हर सन्नाटे में इक गूंज दबी होती है |   इन चीखों को, इन गूंजों को बिरले कोई ही सुनता है | कुछ आवाजों की दस्तक बस, दिल के दरवाजे होती है|   जो सुनता है और गुनता है- बैचैनी में सर धुनता है | जिसको सुनना था-वो बहरा, उसके कानों पर है पहरा |   फिर कोई भगतसिंह आता है, संग अपने धमाके लाता है | बहरे कानों की यही दवा, ये सीख हमें दे जाता है |   इन चीखों को, इन गूंजों को, अपने दिल में घर करने दे | सत्ता से जनता नहीं डरे, सत्ता को जनता से डरने दे |  

एक बलात्कारी दिन

    एक बलात्कारी दिन, आया, आके बीत गया | रोया ख़बरें सुन-सुन कर, मन मानों रीत गया ||   बच्चियों तक को न बख्शा इन वहशी दरिंदों ने | खुदा शायद हार गया, शैतान जीत गया ||   छीन ली कुछ मासूमों की मुस्कान सदा के लिये | खिलखिलाहटें थमीं और जीवन-संगीत गया ||   सत्ता के कानों पे जूं तक नहीं रेंगी | औरत का कोई नहीं, ऐसा परतीत गया ||   जनता का गुस्सा भी क्षणिक-सा उबाल है | नारे लगे, कैंडल जले और लावा रीत गया ||   ---केशवेन्द्र---