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दिल्ली - धुंध है, धुंआ है, लाचारी है

धुंआ है, धुंध है, लाचारी है | मार कुदरत की सब पे भारी है || कोसने से पहले सोचे, हमने क्या किया अब तक | एक पौधा भी लगाया, या की बस बातें की || कहते रहे धरती को बचाना है | और प्लास्टिक की पत्तलों में खाना है || नदियों को माँ कह के बस पूजते रहे | या जिन्होंने गन्दगी फैलाई ,उन्हें रोका भी || जैसा चल रहा, चलता रहा अगर वैसा ही | पानी बोतल में, हवा सिलिंडर में भर के बेचेंगे || बची रही नहीं अगर धरती हरी -भरी | तो हम भी बचेंगे म्यूजियम में ही कहीं || शुद्ध हवा हमको अगर पाना है | आज ही एक पेड़ चलो चलके लगाना है || ऐसी कैसी धरती छोड़ के हम जायेंगे | शस्य श्यामल नहीं जो कालिम हो || ऐसा आकाश देंगे बच्चों को | नीलिमा जिसकी कालिख वाली हो? ऐसी नदिया कैसे छोड़ के हम जायेंगे | जिसमे मछली भी जिन्दा नहीं है रह पाती || ये धरती हमारी नहीं, भविष्य की थाती है | आओं, इसे हरी-भरी और खुशनुमा रखे || तितलियों, चिड़ियों, फूलों- फलों, वन्य प्राणियों से भरा-पूरा रक्खे || सिर्फ कैंडल नहीं जलाएं हम | उससे भी सिर्फ धुआं फैलेगा || सिर्फ ना