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"एक शेर अपना, एक पराया" में राहत इंदौरी साहब के शेरों के साथ उन्हें भावभीनी विदाई

"एक शेर अपना, एक पराया" की शृंखला में मैंने कई शायरों के शेरों को लेकर उनपर कुछ अपने शेर कहने की कोशिश की थी |  कल राहत इंदौरी साहब के कोरोना से जूझकर असामयिक देहांत के बाद उनको विदा देने के लिए शेरों से ज्यादा अच्छे कोई फूल मुझे न सूझे  | अपने बागी और तल्ख़ तेवरों से समाज और शासन को सच का आईना दिखाने वाले इस महान शायर में गज़ब की सादगी और साफगोई थी | भले ही राहत इंदौरी साहब हमारे बीच अब न हों, उनकी शायरी उनकी यादों को जिन्दा रखेगी |  पेश है राहत साहब की याद को संजोता "एक शेर अपना, एक पराया" का यह स्तम्भ |  १. लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में |     यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है ||     मैं जानता हूँ दुश्मन भी कम नहीं लेकिन |      हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है ||     सभी का खून है  शामिल  यहाँ की मिट्टी में |     किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है ||     --राहत इंदौरी ---- हमारी  सरहदों को लांघने की ना  करो ज़ुर्रत |  जान से जाओगे, गलवन में  झूठी शान थोड़ी है ||  भूख पे लिखनेवालों, भूख को कभी जानों |   जिंदगी सबके लिए पान-मखान थोड़ी है ||  -----केशवेन्द्र------ २. अब से

धर्मान्धता

धर्मान्धता धृतराष्ट्र की भांति अपना ही अहित करती है | पुत्र और सत्ता मोह में व्याकुल, पांडवों के साथ हर छल पर मौन सहमति रही, धृतराष्ट्र तो जन्मांध थे, गांधारी की आँखों पर भी पट्टी तनी रही | धर्म धुरंधर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दानवीर कर्ण, सब चुपचाप देखते रहे, विदुर बस एक धर्म की आवाज रहा, नक्कारखाने में तूती की तरह बजता रहा | शकुनि की  दुर्बुद्धि का डंका बजा , चांडाल चौकड़ी की तिकड़में  सजी , द्यूत क्रीड़ा के मकड़जाल में, पांडवों की धन-संपत्ति-इज्जत फंसी | द्रौपदी के चीरहरण पर, धर्म ही रोया शायद वस्त्र बनके, और कृष्ण के हाथों आ गया अबला नारी की लाज ढकने | उस सभा में शामिल सभी लोगों की आयु उसी दिन शेष हुई, बाकी के दिन मरघट के दिन थे, चलते-फिरते प्रेत हुए | फिर महाभारत का युद्ध तो बस औपचारिकता थी, सबने मिलकर धर्म की अधर्म से हत्या की | बाकी का जीवन आत्मग्लानि का जीवन रहा, नजरें नीची किये समय व्यतीत करते रहे बचे हुए लोग, तथाकथित धर्मयुद्ध के बाद | धृतराष्ट्र की धर्मबुद्धि यदि जन्मांध न होती, गांधारी के धर्मचक्षु पर यदि पट्टी न बंधी होती, शक