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धर्मान्धता

धर्मान्धता धृतराष्ट्र की भांति अपना ही अहित करती है | पुत्र और सत्ता मोह में व्याकुल, पांडवों के साथ हर छल पर मौन सहमति रही, धृतराष्ट्र तो जन्मांध थे, गांधारी की आँखों पर भी पट्टी तनी रही | धर्म धुरंधर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दानवीर कर्ण, सब चुपचाप देखते रहे, विदुर बस एक धर्म की आवाज रहा, नक्कारखाने में तूती की तरह बजता रहा | शकुनि की  दुर्बुद्धि का डंका बजा , चांडाल चौकड़ी की तिकड़में  सजी , द्यूत क्रीड़ा के मकड़जाल में, पांडवों की धन-संपत्ति-इज्जत फंसी | द्रौपदी के चीरहरण पर, धर्म ही रोया शायद वस्त्र बनके, और कृष्ण के हाथों आ गया अबला नारी की लाज ढकने | उस सभा में शामिल सभी लोगों की आयु उसी दिन शेष हुई, बाकी के दिन मरघट के दिन थे, चलते-फिरते प्रेत हुए | फिर महाभारत का युद्ध तो बस औपचारिकता थी, सबने मिलकर धर्म की अधर्म से हत्या की | बाकी का जीवन आत्मग्लानि का जीवन रहा, नजरें नीची किये समय व्यतीत करते रहे बचे हुए लोग, तथाकथित धर्मयुद्ध के बाद | धृतराष्ट्र की धर्मबुद्धि यदि जन्मांध न होती, गांधारी के धर्मचक्षु ...