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एक बलात्कारी दिन

    एक बलात्कारी दिन, आया, आके बीत गया | रोया ख़बरें सुन-सुन कर, मन मानों रीत गया ||   बच्चियों तक को न बख्शा इन वहशी दरिंदों ने | खुदा शायद हार गया, शैतान जीत गया ||   छीन ली कुछ मासूमों की मुस्कान सदा के लिये | खिलखिलाहटें थमीं और जीवन-संगीत गया ||   सत्ता के कानों पे जूं तक नहीं रेंगी | औरत का कोई नहीं, ऐसा परतीत गया ||   जनता का गुस्सा भी क्षणिक-सा उबाल है | नारे लगे, कैंडल जले और लावा रीत गया ||   ---केशवेन्द्र---