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हाथी तो हाथी होता है

  हाथी तो हाथी होता है । जंगल का साथी होता है । हरदम उसकी मटरगशतियां, कभी खेत में, कभी बस्तियां; कभी नदी के बैठ किनारे, देखा करता है वो कश्तियां । कभी हिरण के संग कुलांचें, कभी तितलियों के संग नाचे । कभी तोते के संग बैठकर, जंगल का भविष्य वो बांचे । कभी नदी में छपाक -छप -छप, कभी धूल में धपाक -धप -धप ; कभी सूंड में पानी भरकर, उड़ा रहा फव्वारे फर -फर । सुंदर दांतों पर अपने, हाथी है हरदम इतराता; खाने के है दांत और ही, राज की बात वो सबसे छुपाता । केला, गन्ना खाता हाथी, आम देख ललचाता हाथी; कटहल का जो पेड़ दिख गया, सारे चट कर जाता हाथी । बचे रहेंगे हाथी तो, बचे रहेंगे जंगल भी; बचे रहेंगे जंगल तो, होगा सबका मंगल भी । हाथी तो हाथी होता है । जंगल का साथी होता है ।

कटुक वचन मत बोल

  कड़वाहट का बीज जो बोते चलते हैं । जब पौधे में फल आता है , फल को खाकर, मुंह बिचकाकर; थू थू करते फिरते हैं। कड़वाहट का बीज जो बोते चलते हैं ।

एक गीत होलिका के नाम (अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर)

जलाओ जलाओ और जलाओ।  जितनी मर्जी तुम्हारी होलिका जलाओ । हाँ, आ गई थी अपने दुष्ट भाई की बातों में; भोले प्रह्लाद को छल से मारने के षड्यंत्र में । मगर, एक नारी थी मैं ; नहीं सह पाया मन अपने भतीजे या, एक बच्चे को जिंदा जलाने की पीड़ा । हां, बैठी थी उसे लेकर लपलपाती चिता पर , अपना अग्नि क्षम वस्त्र ओढ़ कर , मगर जब आग लगाई गई और लगा कि- अब भोले प्रह्लाद की जान जाने ही वाली है- जाग उठी ममता मेरी, सोई थी जो कुंभकर्णी निंद्रा में । सर्वस्व त्याग का वो पुण्य क्षण था, जब मैंने अपनी अग्निरोधी चादर प्रह्लाद को उढ़ा दी, और खुद को लपलपाती अग्नि की लपटों के हवाले कर दिया । पुत्र प्रह्लाद तो आंखें मूंदे अपने आराध्य विष्णु की उपासना में लीन था । देखने वालों को लगा मानों दैवी चमत्कार से मेरी चादर आ गई प्रह्लाद के ऊपर और हहाती अग्नि की लपटों के बीच भी बाल भी बांका न हुआ उस नन्हें विष्णुभक्त का ; और उन्होंने सोचा की पापिन होलिका जल मरी। तब से लेकर आज तक, लोग होलिका के जल मरने और प्रह्लाद के बचने की खुशी में मनाते हैं होलिका दहन । और, हर साल न जाने कितनी महिलाएं बच्चे जला दिए जाते हैं इसी सहृदय समाज में कभी

तुलसीदास की विनय पत्रिका, गीतावली एवं कवितावली

तुलसी साहित्य में रूचि रखनेवालों के लिए  तुलसीदास जी की विनय पत्रिका, गीतावली और कवितावली को पढ़ना एक अलग आनंद देता है।  लोकभारती प्रकाशन से अत्यंत ही अल्प मूल्य में  प्रकाशित तुलसी साहित्य के सुधी अध्येता योगेंद्र प्रताप सिंह जी की विनय पत्रिका पर लिखी सुन्दर टीका और इसी प्रकाशन से प्रकाशित गीतावली और कवितावली की सुधाकर पाण्डेय द्वारा लिखी टीका सभी पाठकों के लिए तुलसी साहित्य में डुबकी लगा कर कुछ ज्ञान, कुछ कर्म, कुछ श्रद्धा -विह्वल भक्ति  तो कुछ वैराग्य  के मोती ढूंढ लाने का अवसर देती है।   योगेंद्र प्रताप सिंह जी की विनय पत्रिका पर लिखी टीका में अर्थ की हर छटा को बड़े प्रेम और सुगमता से समझाया गया है।  कुछ सुंदर उदाहरण देखें- "मोह दशमौलि तद्भ्रात अहँकार पाकारिजित काम विश्रामहारी।  लोभ अतिकाय मत्सर महोदर दुष्ट क्रोध पापिष्ठ बिबुद्धांतकारी।।  द्वेष दुर्मुख दंभ खर अकंपन कपट दर्प मनुजाद मद शूलपानी।  अमितबल परम दुर्जय निशाचर निकर सहित षडवर्ग गो यातुधानी।। .... कैवल्य साधन अखिल भालु मरकट विपुल ज्ञान सुग्रीवकृत जलिधिसेतु।  प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन तनय विषय वन भवनमिव धूमकेतु।। दुष्ट द

नववर्ष 2023 में सफर चलता रहे यूं ही

  सफर चलता रहे यूं ही । दिल मचलता रहे यूं ही ।। मुकम्मल होने की चाहत रहे। अधूरापन खलता रहे यूं ही ।। हुस्न तो नूर है इलाही का । आशिकों को  छलता रहे यूं ही ।। तूफानों में बीच समंदर खेवे नैया। न कोई किनारे हाथ मलता रहे यूं ही ।। सिकंदर को भी जहां से खाली हाथ जाना है । चांद सितारों का अहं गलता रहे यूं ही ।। जलेगा राख होगा फिर भी उससे आएगी खुशबू। दिल तो दिल है, जले, जलता रहे यूं ही ।। तीर लोहे का हो या सरकंडे का । तीर का मोल है, निशाने हलता रहे यूं ही ।। दोस्तों पे प्यार हो, दुश्मनों पे वार हो । दुश्मन की छाती पे मूंग दलता रहे यूं ही।। दोस्ती जज्बा है वो जिसका कोई जोड़ नहीं। दोस्तों का बिछड़ना टलता रहे यूं ही । लाख नाउम्मीदी हो, अंधेरे हो सीने में आस पलता रहे यूं ही डूबते हुए भी छठ में जिसे पूजते हैं नई सुबह आने को,सूरज ढलता रहे यूं ही ।। दीप से दीप जले, हाशिए भी रौशन हो । अच्छा काम फलता रहे यूं ही ।। नववर्ष 2023 की हार्दिक शुभमंगलकामनाएं।   

प्रभाकर सिन्हा की कविता पुस्तक ओ अहर्निश प्यास

 कवि के प्रथम गंभीर प्रयास में उनकी वर्षों की साधना दिखती है । बोधि प्रकाशन जयपुर ने इसे सादगी पूर्ण सुंदरता से छापा है । संग्रह की शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां मर्मस्पर्शी लगीं - "मैं तुम्हारे मौन का विस्तार लेकर,  प्रार्थना में हाथ जोड़े, रिक्त होने की डगर पर ,  शून्य अर्पित कर रहा हूं, अर्थ के बल पर खड़े ये शब्द मेरे बोध से लड़ते नहीं अब । मैं तुम्हारे दिव्य रथ पर पार्थ के उद्दाम यौवन की छवि में, युद्ध का समवेत स्वर अब सुन रहा हूं । आस्था बलवंत है अब  भय तिरोहित हो चुका है ।" मां पर लिखी कविता में भी कई अनूठे बिंब और अर्थ छवियां है- 'झंझावातों के बीच / एक सुखद एकांत थी मां।' हिंदी गजलों में हालांकि   गजलों के तकनीकी पहलुओं की बंदिशों से  कुछ छूट ली गयी है, पर कुछ पंक्तियां काफी अच्छी बन पड़ी है जैसे- "जीतकर सुख समेट लेते हैं , हारकर दुख बटोर लेते हैं । बंजर जमीं पे आज भी, कंकड़ बनी फसल,  दरिया हुआ है कैद, हिफाजत के नाम पर ।" ओ अहर्निश प्यास के प्रिय कवि प्रभाकर जी को उनके सार्थक कविकर्म हेतु शुभकामनाएं ।

गाँधी और गोडसे

 पूरे भारत में आज फिर ; आमने-सामने हैं गोडसे और गाँधी |  गोडसे के अनेक चेहरे हैं, अनेक रूप हैं, अनेक अस्त्र-शस्त्र हैं ; गाँधी एक है, सदा एक, और  संबल है उसका सत्य और अहिंसा |  गाँधी वह सीना है, जो सत्य के लिए, गोडसे की तीन नहीं, अनगिन  गोलियाँ खाने को सदा तैयार है |  गोडसे आदमी में छिपी  हैवानियत है, आदमी की पाशविकता और बर्बरता की  की निशानी है |  गाँधी वह देवता है, जो मरकर अमर होता है हमारे दिलों में ; जो हर जोर-जुल्म सहकर भी  सत्य के पारस से  हैवानों को इंसान बनाता है |  हे भारत की जनता |  वक़्त और मानवता का तकाज़ा है कि तुम ; अपने अंदर के गोडसे को निकाल फेंको अब  गाँधी के पावन भारत को  कलुषित करने के जुर्म में |  पुनः प्रतिष्ठा करो अपने मन-मंदिर में , गाँधी की मूर्ति की ; सत्य,अहिंसा, और प्रेम  की  त्रिमूर्ति की |