प्रेम अकेला कर देता है/
मन में पीड़ा भर देता है/
कुछ खोने का डर देता है/
ख़ामोशी को स्वर देता है/
नयनों में जल भर देता है/
दुनिया बदल कर धर देता है/
प्रेम अकेला कर देता है//
कटुक वचन मत बोल
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कड़वाहट का बीज जो बोते चलते हैं ।
जब पौधे में फल आता है , फल को खाकर, मुंह बिचकाकर; थू थू करते फिरते हैं।
कृ ष्णा सोबती जी मेरी सबसे प्रिय लेखिकाओं में एक हैं और उनके सारे रचना संसार में “बादलों के घेरे” मेरी सबसे प्रिय कहानी है. इस कहानी में प्यार की जो करुण कथा है, वो पाठकों के मन में मानों धुंध भरी उदासी बन कर बस जाती है. इस कहानी को पढते हुए मन में जो भावनाएँ उमड़ी थी, उन्हें इससे पहले भी इक बार कविता में ढाला था पर वो कहीं गुम गई है. फिर से इस कहानी को हाल में पढते हुए इसे गीत में ढलने की कोशिश की है. यह रचना कृष्णा सोबती जी और उनके लेखन को समर्पित है. प्रयास कैसा रहा, इसे जानने की उत्कंठा रहेगी.. बादलों के घेरे में दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || घिर रही यादों की घटा मन की पहाड़ी घाटियों में, और रह-रह कर हैं आंसू छलके पड़ते चेहरे पर, यादों की है रील फिरती मन के पटल पर बार-बार, तुम-ही-तुम बस याद आते, ओ मेरे पहले प्यार | दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || दरस पा कर के तुम्हारा, चाहना जागी थी मन में, इक सुमधुर हृदय थी, थी मगर अभिशप्त तन में; एक डोर खींचती
इस पोस्ट में मैं हिंदी ग़ज़ल को एक नए मुकाम पर पहुचने वाले और आपातकाल की तानाशाही के खिलाफ जनता को झकझोरने वाले शायर दुष्यंत कुमार के कुछ पसंदीदा शेर और उनकी तर्ज़ पर लिखे अपने शेर पेश करूँगा. पेशकश कैसी लगी. यह आपसे जानने की प्रतीक्षा रहेगी. १. मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ, पर कुछ कहता नही, बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार. ---दुष्यंत कुमार---- घृणा से मुझे घूर कर पूछा वो पूछा ख्वाहिश आखिरी हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'. ----केशवेन्द्र कुमार---- २. सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं. ---दुष्यंत कुमार--- इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा आशिक तो हैं हम भी तेरे, होंगे मगर जोगी नहीं. ---केशवेन्द्र कुमार---- ३. जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए ----दुष्यंत कुमार---- आँख में जम गया है अँधेरा परत-दर-परत और कितना इंतजार बाकी है सहर के लिए. ----केशवेन्द्र---- ४. ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं
आत्ममुग्धता दबे पाँव आखेट करती है | बड़े- बड़े आखेटक, चूर अपनी कीर्ति गाथाओं में, अनभिज्ञ इस बात से कि ; उनका भी हो सकता है आखेट, बन जाते हैं आखेट आत्ममुग्धता का | जारी रखते हैं वो आखेट औरों का, अपना हाल अनजाने | आत्ममुग्धता फंदे बिछाती है चुपचाप | अहं के नुकीले बरछों से भरे गड्ढ़े , अति यशाकांक्षा के पांवों के फंदे, अतिशय भोग-विलास के पिंजरे, सर्वज्ञता की गले की फांस, इनसे बचना विरले ही होता है संभव | आत्ममुग्धता नहीं सजाती अपने शिकार की ट्रॉफी | मगर शिकार के चेहरे, बोली, हाव-भाव, बर्ताव से झलकता है उसका शिकार होना; अंधेर नगरी के मायालोक में रहता है, आत्ममुग्ध चौपट राजा , रेबड़ी बांटता है अपने में और पूछता है परायों से स्वाद | आत्ममुग्ध लोगों से आतंकित रहती है दुनिया | इतिहास गवाह है- आत्ममुग्ध लोगों ने सबसे ज्यादा की है मानवता की क्षति; कभी इतिहास बदलने के नाम पर, तो कभी धर्म, देश, प्रकृति और मानवता को बचाने के नाम पर; जबकि जरुरी था उनका अपनेआप को आत्ममुग्धता से बचाना |
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