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भोजपुरी मिट्टी की खुशबू से रचा-बसा मृत्युंजय जी का उपन्यास 'गंगा रतन विदेशी'

  अपनी मातृभाषा से प्रेम और उसकी समृद्धि के लिए प्रयास करना बड़े ही गौरव की बात है | बिहार के सन्दर्भ में देखे तो समाज एवं सरकार द्वारा मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका, वज्जिका में लेखन, चलचित्र निर्माण एवं पठन-पाठन को बढ़ावा दिए जाने की जरुरत है | हाल ही में मृत्युंजय जी द्वारा लिखित एवं भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित भोजपुरी उपन्यास गंगा रतन विदेशी को पढने का सुयोग अपने सहकर्मी अभिषेक द्वारा इस पुस्तक की प्रति पाकर प्राप्त हुआ | पश्छिम बंगाल कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी द्वारा अपनी मातृभाषा की सेवा में जो किया जा रहा है वह अनुकरणीय है | गिरमिटिया मजदूर मूनेसर के पोते रतन दुलारी की गाँधी जी के साथ नटाल, दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी होती है, सदियों से छूटी मिट्टी के साथ फिर नाता जुड़ता है, युवावस्था की सखी गंगझरिया जो विधवा हो गयी रहती है, उससे मिलन और हेमवती जी जैसे उदारमना लोगों के सहयोग से शादी होती है और फिर खेजुआ गाँव में बसकर आगे की कथा चलती है | किस्मत के फेर से रतन के बेटे गंगा रतन विदेशी को अपने बेटे के इलाज और रेहन पर चढ़े खेत को छुड़ाने के लिए कलकत्ता प्रवास करना पड़ता है