संदेश

2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सतगुर की महिमा अनॅंत

कबीरदास के दोहों में सच्चे गुरु की महिमा बड़े ही रोचक ढंग से और लोकजीवन से उदाहरण देते हुए कही गयी है| सच्चा गुरु मनुष्य को देवता के समान बनाने के प्रयास में लगा रहता है, अनंत ज्ञान को शिष्य को देने का प्रयास करता है | गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिल सकता | जब गोविन्द कृपा करते हैं तो गुरु की प्राप्ति  होती है  | अयोग्य गुरु  अयोग्य शिष्य एक दूसरे का उसी प्रकार नुकसान करते हैं जैसे अँधा मनुष्य दूसरे अंधे मनुष्य को रास्ता बतलाने के समय करता है | गुरु शिष्य के संशय का नाश करता है | गुरु के पारस स्पर्श से शिष्य लोहे से सोने में बदल जाता है|  भारतीय परंपरा में गुरु का जो आदर है, वह पाश्चात्य परंपरा के लिए आश्चर्य  की वस्तु है | यहाँ पर गुरु का दर्जा भगवान के बराबर माना गया है | गुरु-गोविन्द दोनों के सामने आने पर शिष्य का यह कर्त्तव्य है की वह पहले गुरु की वंदना करे जिसने उसे गोविन्द का ज्ञान दिया है | कृष्ण, बुद्ध, महावीर और गुरु नानक, इनके व्यक्तित्व का अहम् हिस्सा गुरु के रूप में  लोगों के पथप्रदर्शन का है |   गुरु बिना ज्ञान न होई, यह कहावत लोकमन में यूँ ही नहीं बैठी है |   प्राचीन काल की गु

"एक शेर अपना, एक पराया" में राहत इंदौरी साहब के शेरों के साथ उन्हें भावभीनी विदाई

"एक शेर अपना, एक पराया" की शृंखला में मैंने कई शायरों के शेरों को लेकर उनपर कुछ अपने शेर कहने की कोशिश की थी |  कल राहत इंदौरी साहब के कोरोना से जूझकर असामयिक देहांत के बाद उनको विदा देने के लिए शेरों से ज्यादा अच्छे कोई फूल मुझे न सूझे  | अपने बागी और तल्ख़ तेवरों से समाज और शासन को सच का आईना दिखाने वाले इस महान शायर में गज़ब की सादगी और साफगोई थी | भले ही राहत इंदौरी साहब हमारे बीच अब न हों, उनकी शायरी उनकी यादों को जिन्दा रखेगी |  पेश है राहत साहब की याद को संजोता "एक शेर अपना, एक पराया" का यह स्तम्भ |  १. लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में |     यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है ||     मैं जानता हूँ दुश्मन भी कम नहीं लेकिन |      हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है ||     सभी का खून है  शामिल  यहाँ की मिट्टी में |     किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है ||     --राहत इंदौरी ---- हमारी  सरहदों को लांघने की ना  करो ज़ुर्रत |  जान से जाओगे, गलवन में  झूठी शान थोड़ी है ||  भूख पे लिखनेवालों, भूख को कभी जानों |   जिंदगी सबके लिए पान-मखान थोड़ी है ||  -----केशवेन्द्र------ २. अब से

धर्मान्धता

धर्मान्धता धृतराष्ट्र की भांति अपना ही अहित करती है | पुत्र और सत्ता मोह में व्याकुल, पांडवों के साथ हर छल पर मौन सहमति रही, धृतराष्ट्र तो जन्मांध थे, गांधारी की आँखों पर भी पट्टी तनी रही | धर्म धुरंधर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दानवीर कर्ण, सब चुपचाप देखते रहे, विदुर बस एक धर्म की आवाज रहा, नक्कारखाने में तूती की तरह बजता रहा | शकुनि की  दुर्बुद्धि का डंका बजा , चांडाल चौकड़ी की तिकड़में  सजी , द्यूत क्रीड़ा के मकड़जाल में, पांडवों की धन-संपत्ति-इज्जत फंसी | द्रौपदी के चीरहरण पर, धर्म ही रोया शायद वस्त्र बनके, और कृष्ण के हाथों आ गया अबला नारी की लाज ढकने | उस सभा में शामिल सभी लोगों की आयु उसी दिन शेष हुई, बाकी के दिन मरघट के दिन थे, चलते-फिरते प्रेत हुए | फिर महाभारत का युद्ध तो बस औपचारिकता थी, सबने मिलकर धर्म की अधर्म से हत्या की | बाकी का जीवन आत्मग्लानि का जीवन रहा, नजरें नीची किये समय व्यतीत करते रहे बचे हुए लोग, तथाकथित धर्मयुद्ध के बाद | धृतराष्ट्र की धर्मबुद्धि यदि जन्मांध न होती, गांधारी के धर्मचक्षु पर यदि पट्टी न बंधी होती, शक

आत्ममुग्धता

आत्ममुग्धता दबे पाँव आखेट करती है | बड़े- बड़े आखेटक, चूर अपनी कीर्ति गाथाओं में, अनभिज्ञ इस बात से कि ; उनका भी हो सकता है आखेट, बन जाते हैं आखेट आत्ममुग्धता का | जारी रखते हैं वो आखेट औरों का, अपना हाल अनजाने | आत्ममुग्धता फंदे बिछाती है चुपचाप | अहं के नुकीले बरछों से भरे गड्ढ़े , अति यशाकांक्षा के पांवों के फंदे, अतिशय भोग-विलास के पिंजरे, सर्वज्ञता की गले की फांस, इनसे बचना विरले ही होता है संभव | आत्ममुग्धता नहीं सजाती अपने शिकार की ट्रॉफी | मगर शिकार के चेहरे, बोली, हाव-भाव, बर्ताव से झलकता है उसका शिकार होना; अंधेर नगरी के मायालोक में रहता है, आत्ममुग्ध चौपट राजा , रेबड़ी बांटता है अपने में और पूछता है परायों से स्वाद | आत्ममुग्ध लोगों से आतंकित रहती है दुनिया | इतिहास गवाह है- आत्ममुग्ध लोगों ने सबसे ज्यादा की है मानवता की क्षति; कभी इतिहास बदलने के नाम पर, तो कभी धर्म, देश, प्रकृति और मानवता को बचाने के नाम पर; जबकि जरुरी था उनका अपनेआप को आत्ममुग्धता से बचाना |