बादलों के घेरे में
कृष्णा सोबती जी मेरी सबसे प्रिय लेखिकाओं में एक हैं और उनके सारे रचना संसार में “बादलों के घेरे” मेरी सबसे प्रिय कहानी है. इस कहानी में प्यार की जो करुण कथा है, वो पाठकों के मन में मानों धुंध भरी उदासी बन कर बस जाती है. इस कहानी को पढते हुए मन में जो भावनाएँ उमड़ी थी, उन्हें इससे पहले भी इक बार कविता में ढाला था पर वो कहीं गुम गई है. फिर से इस कहानी को हाल में पढते हुए इसे गीत में ढलने की कोशिश की है. यह रचना कृष्णा सोबती जी और उनके लेखन को समर्पित है. प्रयास कैसा रहा, इसे जानने की उत्कंठा रहेगी..
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
घिर रही यादों की घटा मन की पहाड़ी घाटियों में,
और रह-रह कर हैं आंसू छलके पड़ते चेहरे पर,
यादों की है रील फिरती मन के पटल पर बार-बार,
तुम-ही-तुम बस याद आते, ओ मेरे पहले प्यार |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
दरस पा कर के तुम्हारा, चाहना जागी थी मन में,
इक सुमधुर हृदय थी, थी मगर अभिशप्त तन में;
एक डोर खींचती थी, एक जकडन रोकती थी,
और यूँ आयी उतर थी मन्नो मेरे जीवन में |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
इक डोर से खिंचता चला आया था मैं पास तेरे,
क्लांत तुम लेती थी और बैठा था मैं साथ तेरे;
हाथ तुमने बढाकर मेरी ओर, फिर खींचा था वापस,
मैं अभागा, कायरमन , छू पाता जो काश हाथ तेरे |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
आज हूँ क्षयग्रस्त मैं भी, सोचता उस रात को,
एक पल में घटनेवाली, छोटी सी बड़ी बात को;
कितनी विवश, कितनी करुण, कातर थी कितनी वो घड़ी,
मन की चाह पे मन का भय, जीता था उस रात को |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
वापसी अनमनी थी, फिर-फिर मुड़े थे पाँव मेरे,
चाह ने पाई विजय थी, विकल थे मन-प्राण मेरे,
आ गया था पास तेरे, और मिलन अपना हुआ था,
और फिर, मैं रौशनी में आ गया, छोड़ कर तुमको अँधेरे|
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
बादलों को देखते ही घिरती है यादों की घटा,
झील की पगडंडियों के आस-पास वो घूमना,
विवश-सी तुमने था टेका मत्था भाग्य के सामने,
मैंने चाहा था घेरना, पर तुमने था किया मना |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
एक महीने रहा घूमता नैनी-भुवाली बार-बार,
विदा लेनी तय थी लेकिन मन ना होता था तैयार;
सिसकियाँ सुनते हुए पग मुड़ें ना, चलते रहे,
नियति के हाथों गया था प्यार मेरा हाय हार !
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
फिर हुई शादी, भुला बैठा मैं दुनिया वो पुरानी,
सुख भरा था वर्तमान, अतीत था बस इक कहानी;
फिर बुआ से जाना, मन्नो का सदा को चला जाना,
अपने हाथों से बुनी जर्सी, रख गयी थी वो निशानी.
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
लौट कर आया, मगर मन्नो नहीं फिर मन से उतरी,
साल भर बीमार रह कर पहुंचा मैं फिर से भुवाली,
वही कॉटेज, वही सब कुछ, पर वहां मन्नो नहीं थी,
यादों में मीरा नहीं, मन्नो ही हर पल संग में थी |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
यहाँ तन्हाई में अपनी जब मन बहुत बैचैन होता,
याद आ जाता वो मन्नो का विवश, घुट-घुट के रोना,
अपनी कायरता को रोता, उसकी लाचारी को रोता,
देखता बादल में उसको, जागी आँखों से मैं सोता |
बादलों के इन्हीं घेरों में मैं इक दिन जा समाऊंगा |
मन्नो को शायद कहीं इन बादलों में ही पाउँगा ||
बादलों के घेरे में
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
घिर रही यादों की घटा मन की पहाड़ी घाटियों में,
और रह-रह कर हैं आंसू छलके पड़ते चेहरे पर,
यादों की है रील फिरती मन के पटल पर बार-बार,
तुम-ही-तुम बस याद आते, ओ मेरे पहले प्यार |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
दरस पा कर के तुम्हारा, चाहना जागी थी मन में,
इक सुमधुर हृदय थी, थी मगर अभिशप्त तन में;
एक डोर खींचती थी, एक जकडन रोकती थी,
और यूँ आयी उतर थी मन्नो मेरे जीवन में |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
इक डोर से खिंचता चला आया था मैं पास तेरे,
क्लांत तुम लेती थी और बैठा था मैं साथ तेरे;
हाथ तुमने बढाकर मेरी ओर, फिर खींचा था वापस,
मैं अभागा, कायरमन , छू पाता जो काश हाथ तेरे |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
आज हूँ क्षयग्रस्त मैं भी, सोचता उस रात को,
एक पल में घटनेवाली, छोटी सी बड़ी बात को;
कितनी विवश, कितनी करुण, कातर थी कितनी वो घड़ी,
मन की चाह पे मन का भय, जीता था उस रात को |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
वापसी अनमनी थी, फिर-फिर मुड़े थे पाँव मेरे,
चाह ने पाई विजय थी, विकल थे मन-प्राण मेरे,
आ गया था पास तेरे, और मिलन अपना हुआ था,
और फिर, मैं रौशनी में आ गया, छोड़ कर तुमको अँधेरे|
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
बादलों को देखते ही घिरती है यादों की घटा,
झील की पगडंडियों के आस-पास वो घूमना,
विवश-सी तुमने था टेका मत्था भाग्य के सामने,
मैंने चाहा था घेरना, पर तुमने था किया मना |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
एक महीने रहा घूमता नैनी-भुवाली बार-बार,
विदा लेनी तय थी लेकिन मन ना होता था तैयार;
सिसकियाँ सुनते हुए पग मुड़ें ना, चलते रहे,
नियति के हाथों गया था प्यार मेरा हाय हार !
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
फिर हुई शादी, भुला बैठा मैं दुनिया वो पुरानी,
सुख भरा था वर्तमान, अतीत था बस इक कहानी;
फिर बुआ से जाना, मन्नो का सदा को चला जाना,
अपने हाथों से बुनी जर्सी, रख गयी थी वो निशानी.
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
लौट कर आया, मगर मन्नो नहीं फिर मन से उतरी,
साल भर बीमार रह कर पहुंचा मैं फिर से भुवाली,
वही कॉटेज, वही सब कुछ, पर वहां मन्नो नहीं थी,
यादों में मीरा नहीं, मन्नो ही हर पल संग में थी |
दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में |
रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में ||
यहाँ तन्हाई में अपनी जब मन बहुत बैचैन होता,
याद आ जाता वो मन्नो का विवश, घुट-घुट के रोना,
अपनी कायरता को रोता, उसकी लाचारी को रोता,
देखता बादल में उसको, जागी आँखों से मैं सोता |
बादलों के इन्हीं घेरों में मैं इक दिन जा समाऊंगा |
मन्नो को शायद कहीं इन बादलों में ही पाउँगा ||
टिप्पणियाँ
मन्नो को शायद कहीं इन बादलों में ही पाउँगा ||
... nihsandeh sreshth prayaas
मन्नो को शायद कहीं इन बादलों में ही पाउँगा ||
... nihsandeh sreshth prayaas
कृष्णा सोबती द्वारा लिखित कहानी 'बादलों के घेरे' मैंने सबसे पहले, राजेंद्र यादव द्वारा सम्पादित ''एक दुनिया समानांतर'' में पढ़ी । यह पुस्तक यूपीएससी द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा की प्रधान परीक्षा के हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में है। वहीँ से इस कहानी को पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। और फिर …अनगिनत बार.…बार बार…पता नहीं कितनी बार मैंने इसे पढ़ा। इसकी संवेदना, मासूमियत और मखमली कोमलता अंदर तक झकझोर देती है। मै सोचता हूँ कि कभी मै भुवाली जाऊं और वहां जाकर "बादलों के घेरे" में खो चुकी मन्नो को ढूंढ निकालूँ....
बस , मेरे लिए इस कहानी का यही यथार्थ और लालित्य बोध है।
प्रशांत
रवि किसी को भी देखता पर उसकी आंखें मन्नो पर ही ठहरा था... अंत हुआ भी अगर कभी तो शरीर का हुआ...उनके मन पर कब किसका पहरा था?
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