हंसी होंठ पर आँखें नम है
कैफ़ी आज़मी का एक मार्मिक शेर याद आ रहा है-
"आज सोचा तो आंसू भर आये
मुद्दतों हो गयी मुस्कराएँ."
सचमुच, जीवन की आपाधापी ने आदमी के होंठों से हंसी छीन ली है. हंसी- जो जिन्दगी की सबसे मूल्यवान नेमत है, आज दुर्लभतम हो गयी है. स्वच्छ धवल मुस्कान, कहकहे, मुक्त अट्टहास शायद ही कहीं दिखते हैं. बड़ों की दुनिया इतनी क्रूर, इतनी जालिम, इतनी बेरहम हो गयी है कि प्रकृति ने उससे हंसी छीन ली है. हंसी बची है अगर कहीं तो मासूम बच्चों के पास बची है. बड़ों कि दुनिया में तो हंसी भी बाजार का उत्पाद बन गयी है. मुस्कराने के लिए भी अब विशेष ब्रांड के टूथपेस्ट , ब्रश , क्रीम और मोउथ -फ्रेशनरों कि जरुरत है. हंसी हास्य क्लबों के यहाँ मानों गिरवी रख दी गयी है.
आधुनिक युग का मानव हँसे भी तो कैसे हँसे ? आज की इस तेज रफ़्तार दुनिया में उसके पास जीने की भी फुर्सत नही रह गयी है शायद! आदमी आदमी ना रहकर मशीन होता जा रहा है, संवेदन शून्य रोबोट होता जा रहा है. हंस सकता है वो जो अपनी शर्तों पर एक भरी-पूरी जिन्दगी जीता हो, जो औरों के दुःख-दर्द मिटाने का प्रयास करता हो, जो जिन्दादिली से जिन्दगी कि हर परिस्थिति का सामना करता हो और दुर्भाग्यवश ऐसे लोग दुनिया से बड़ी तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं.
हंसी बड़ी संक्रामक होती है. आपके आस-पास परिवार, समाज और देश-दुनिया में यदि हंसी-ख़ुशी का माहौल होगा तो जाहिरन आपके होठों पर भी हंसी होगी. मगर कैसे हंस सकता है कोई जब वह दुखों कि आग में घिरा हो, बेरोजगारी के दंश से अन्दर-ही-अन्दर घुटता हो, व्यस्था और समाज की जड़ता और रूढ़िवादिता को देख कर छटपटाता हो? कैसे हंस सकता है कोई जब किसान-मजदुर भूख और गरीबी के कारण आत्महत्या कर रहे हों, जब गोधरा और गुजरात जैसी घटनाएँ होती हो, जब नक्सली और आतंकवादी हिंसा में निर्दोष लोगों कीड़ों-मकोड़ों कि तरह मरते हों, जब ईमानदार आवाजों को शैतानी हाथ हमेशा के लिए खामोश कर देते हों, जब अफगानिस्तान, इराक और पाकिस्तान में सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोग रोज मरे जाते हों, जब भूख के मारे दुनिया के कोने-कोने के बच्चे रोते हो,, जब हंसती-खेलती गुडिया सी बच्चियों की इज्ज़त लूटी जाती हो, मानवता जब ज़ार-ज़ार रो रही हो, तब मानव के होठों पर हंसी आ भी सकती है कैसे भला? कबीर याद आते हैं ऐसे में-
"सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै
दुखिया दस कबीर है, जागे और रोवै.
आजकल के ज़माने में समाज-देश-दुनिया की दुर्दशा से द्रवित हो कर रोनेवाले लोग बहुत ही कम रह गए हैं. बाकी दुनिया खुशहाल होने का दिखावा करती है मगर उसके द्वारा ओढ़ी हर मुस्कराहट एक मुखौटा, इक छलावा है. उसकी हंसी बड़ी खोखली है क्योंकि वह सिर्फ बाह्य अभिव्यक्ति है, आन्तरिक नही. वर्तमान दुनिया में आदमी के हर्ष-विषाद की मात्रा भी बाजार निर्धारित कर रहा है. बाजारू सभ्यता का बोझ कंधे पर पड़ते ही बच्चे अपनी कुदरती मुस्कान भूल जाते हैं और सीखते हैं एक औपचारिक मुखमुद्रा बनाना जिसे हंसी कहना हंसी का अपमान है. ओढ़ी हुई मुस्कराहट हमें अन्दर से और उदास कर जाती है.
एक सच्चा और ईमानदार इन्सान उस भ्रष्ट व्यवस्था में कैसे मुस्करा सकता है जहाँ जनता भूखों मरती हो, हताश निराश हो और नौकरशाह तथा नेतागण भोग-विलास में तल्लीन हों? रघुवीर सहाय ने अपनी कविता 'हंसो, हंसो, जल्दी हंसो' में ऐसी ही स्थिति पर लिखा था-
'हंसो, पर अपने पर ना हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
बेहतर है की जब कोई बात करो तब हंसों
ताकि किसी बात का कोई मतलब ना रहे
और ऐसे मौकों पर हंसो जो की अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहाँ कोई कुछ नही कर सकता उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है."
खैर, दुनिया में ढेरों ग़म है, खुशियों के मौके कम हैं. पल-दो-पल जो मिले हमको, उसमें तो हम मुस्कुरा ले, कुछ हंस ले कुछ हंसा ले. हमें फिर से प्रकृति के सान्निध्य में जाकर हँसना सीखना होगा, बच्चों से थोड़ी-सी मुस्कुराहटें उधार लेनी होंगी, पूरी दुनिया में प्रेम-स्नेह-भाईचारे की लौ जलानी होगी, हर आँख के आंसू पोंछने होंगे, हर होंठ पर हंसी लाने का प्रयास करना होगा और देखते-देखते हमारी खुद की जिन्दगी खुशियों से भर उठेगी . आओ, साथियों, ग़म के कालकूट को पी हम बाकी दुनिया को खुशियों का अमृतकलश सौंपे. पूरी दुनिया खिलखिलाएगी, ठहाके लगाएगी, मंद-मंद मुस्काएगी और उस मुस्कान में हमारा भी साझा होगा. पूरी दुनिया मुस्कान की रौशनी से चमक-दमक उठेगी. अपनी हाल में ही लिखी एक त्रिवेणी से इस पोस्ट को विराम देना चाहूँगा- आप भी हँसते और हँसाते रहे.
उसके चेहरे की उदासी मेरी आँखों ने पढ़ी
और मेरे चेहरे की उदासी भांप ली उसने,
हँस के अपनी उदासियाँ साझा कर ली हमने.
"आज सोचा तो आंसू भर आये
मुद्दतों हो गयी मुस्कराएँ."
सचमुच, जीवन की आपाधापी ने आदमी के होंठों से हंसी छीन ली है. हंसी- जो जिन्दगी की सबसे मूल्यवान नेमत है, आज दुर्लभतम हो गयी है. स्वच्छ धवल मुस्कान, कहकहे, मुक्त अट्टहास शायद ही कहीं दिखते हैं. बड़ों की दुनिया इतनी क्रूर, इतनी जालिम, इतनी बेरहम हो गयी है कि प्रकृति ने उससे हंसी छीन ली है. हंसी बची है अगर कहीं तो मासूम बच्चों के पास बची है. बड़ों कि दुनिया में तो हंसी भी बाजार का उत्पाद बन गयी है. मुस्कराने के लिए भी अब विशेष ब्रांड के टूथपेस्ट , ब्रश , क्रीम और मोउथ -फ्रेशनरों कि जरुरत है. हंसी हास्य क्लबों के यहाँ मानों गिरवी रख दी गयी है.
आधुनिक युग का मानव हँसे भी तो कैसे हँसे ? आज की इस तेज रफ़्तार दुनिया में उसके पास जीने की भी फुर्सत नही रह गयी है शायद! आदमी आदमी ना रहकर मशीन होता जा रहा है, संवेदन शून्य रोबोट होता जा रहा है. हंस सकता है वो जो अपनी शर्तों पर एक भरी-पूरी जिन्दगी जीता हो, जो औरों के दुःख-दर्द मिटाने का प्रयास करता हो, जो जिन्दादिली से जिन्दगी कि हर परिस्थिति का सामना करता हो और दुर्भाग्यवश ऐसे लोग दुनिया से बड़ी तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं.
हंसी बड़ी संक्रामक होती है. आपके आस-पास परिवार, समाज और देश-दुनिया में यदि हंसी-ख़ुशी का माहौल होगा तो जाहिरन आपके होठों पर भी हंसी होगी. मगर कैसे हंस सकता है कोई जब वह दुखों कि आग में घिरा हो, बेरोजगारी के दंश से अन्दर-ही-अन्दर घुटता हो, व्यस्था और समाज की जड़ता और रूढ़िवादिता को देख कर छटपटाता हो? कैसे हंस सकता है कोई जब किसान-मजदुर भूख और गरीबी के कारण आत्महत्या कर रहे हों, जब गोधरा और गुजरात जैसी घटनाएँ होती हो, जब नक्सली और आतंकवादी हिंसा में निर्दोष लोगों कीड़ों-मकोड़ों कि तरह मरते हों, जब ईमानदार आवाजों को शैतानी हाथ हमेशा के लिए खामोश कर देते हों, जब अफगानिस्तान, इराक और पाकिस्तान में सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोग रोज मरे जाते हों, जब भूख के मारे दुनिया के कोने-कोने के बच्चे रोते हो,, जब हंसती-खेलती गुडिया सी बच्चियों की इज्ज़त लूटी जाती हो, मानवता जब ज़ार-ज़ार रो रही हो, तब मानव के होठों पर हंसी आ भी सकती है कैसे भला? कबीर याद आते हैं ऐसे में-
"सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै
दुखिया दस कबीर है, जागे और रोवै.
आजकल के ज़माने में समाज-देश-दुनिया की दुर्दशा से द्रवित हो कर रोनेवाले लोग बहुत ही कम रह गए हैं. बाकी दुनिया खुशहाल होने का दिखावा करती है मगर उसके द्वारा ओढ़ी हर मुस्कराहट एक मुखौटा, इक छलावा है. उसकी हंसी बड़ी खोखली है क्योंकि वह सिर्फ बाह्य अभिव्यक्ति है, आन्तरिक नही. वर्तमान दुनिया में आदमी के हर्ष-विषाद की मात्रा भी बाजार निर्धारित कर रहा है. बाजारू सभ्यता का बोझ कंधे पर पड़ते ही बच्चे अपनी कुदरती मुस्कान भूल जाते हैं और सीखते हैं एक औपचारिक मुखमुद्रा बनाना जिसे हंसी कहना हंसी का अपमान है. ओढ़ी हुई मुस्कराहट हमें अन्दर से और उदास कर जाती है.
एक सच्चा और ईमानदार इन्सान उस भ्रष्ट व्यवस्था में कैसे मुस्करा सकता है जहाँ जनता भूखों मरती हो, हताश निराश हो और नौकरशाह तथा नेतागण भोग-विलास में तल्लीन हों? रघुवीर सहाय ने अपनी कविता 'हंसो, हंसो, जल्दी हंसो' में ऐसी ही स्थिति पर लिखा था-
'हंसो, पर अपने पर ना हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
बेहतर है की जब कोई बात करो तब हंसों
ताकि किसी बात का कोई मतलब ना रहे
और ऐसे मौकों पर हंसो जो की अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहाँ कोई कुछ नही कर सकता उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है."
खैर, दुनिया में ढेरों ग़म है, खुशियों के मौके कम हैं. पल-दो-पल जो मिले हमको, उसमें तो हम मुस्कुरा ले, कुछ हंस ले कुछ हंसा ले. हमें फिर से प्रकृति के सान्निध्य में जाकर हँसना सीखना होगा, बच्चों से थोड़ी-सी मुस्कुराहटें उधार लेनी होंगी, पूरी दुनिया में प्रेम-स्नेह-भाईचारे की लौ जलानी होगी, हर आँख के आंसू पोंछने होंगे, हर होंठ पर हंसी लाने का प्रयास करना होगा और देखते-देखते हमारी खुद की जिन्दगी खुशियों से भर उठेगी . आओ, साथियों, ग़म के कालकूट को पी हम बाकी दुनिया को खुशियों का अमृतकलश सौंपे. पूरी दुनिया खिलखिलाएगी, ठहाके लगाएगी, मंद-मंद मुस्काएगी और उस मुस्कान में हमारा भी साझा होगा. पूरी दुनिया मुस्कान की रौशनी से चमक-दमक उठेगी. अपनी हाल में ही लिखी एक त्रिवेणी से इस पोस्ट को विराम देना चाहूँगा- आप भी हँसते और हँसाते रहे.
उसके चेहरे की उदासी मेरी आँखों ने पढ़ी
और मेरे चेहरे की उदासी भांप ली उसने,
हँस के अपनी उदासियाँ साझा कर ली हमने.
टिप्पणियाँ
मालूम नहीं यह कीमत कहीं इंसान के पहचान को ही ना ले डूबे..