तुलसीदास की विनय पत्रिका, गीतावली एवं कवितावली

तुलसी साहित्य में रूचि रखनेवालों के लिए  तुलसीदास जी की विनय पत्रिका, गीतावली और कवितावली को पढ़ना एक अलग आनंद देता है।  लोकभारती प्रकाशन से अत्यंत ही अल्प मूल्य में  प्रकाशित तुलसी साहित्य के सुधी अध्येता योगेंद्र प्रताप सिंह जी की विनय पत्रिका पर लिखी सुन्दर टीका और इसी प्रकाशन से प्रकाशित गीतावली और कवितावली की सुधाकर पाण्डेय द्वारा लिखी टीका सभी पाठकों के लिए तुलसी साहित्य में डुबकी लगा कर कुछ ज्ञान, कुछ कर्म, कुछ श्रद्धा -विह्वल भक्ति  तो कुछ वैराग्य  के मोती ढूंढ लाने का अवसर देती है।  

योगेंद्र प्रताप सिंह जी की विनय पत्रिका पर लिखी टीका में अर्थ की हर छटा को बड़े प्रेम और सुगमता से समझाया गया है।  कुछ सुंदर उदाहरण देखें-

"मोह दशमौलि तद्भ्रात अहँकार पाकारिजित काम विश्रामहारी। 

लोभ अतिकाय मत्सर महोदर दुष्ट क्रोध पापिष्ठ बिबुद्धांतकारी।। 

द्वेष दुर्मुख दंभ खर अकंपन कपट दर्प मनुजाद मद शूलपानी। 

अमितबल परम दुर्जय निशाचर निकर सहित षडवर्ग गो यातुधानी।।

....

कैवल्य साधन अखिल भालु मरकट विपुल ज्ञान सुग्रीवकृत जलिधिसेतु। 

प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन तनय विषय वन भवनमिव धूमकेतु।।

दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित विश्वदुख हरण बोधैकरासी। 

अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी हृदय कमलवासी।।"

अर्थात, महामोह ही रावण है, अहंकार ही उसका भाई कुम्भकर्ण है, काम इंद्रजीत मेघनाद है, लोभ सेनापति अतिकाय है, मत्सर महोदर है, क्रोध पापात्मा अंतकारी है। 

द्वेष ही दुर्मुख है, दंभ ही खर है, कपट ही अकंपन है, दर्प मनुजाद,मद शूलपाणि है।  इन समस्त अति बलशाली राक्षसों के साथ छः इन्द्रियों रुपी राक्षसियाँ हैं।।

हे सियापति, कैवल्य साधन को भालू-बन्दर की सेना बनाकर, ज्ञान रूप सुग्रीव को साथ लेकर, सत्कर्म के सेतु से समुद्र को बांधकर, प्रबल वैराग्य रुपी हनुमान द्वारा विषय वासना की लंका का दहन करें। 

सज्जनों की रक्षा हेतु मोह के रावण को सपरिवार नष्ट कर अखंड ज्ञान रूप श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी सहित भक्त तुलसी के हृदय कमल में निवास करें। 

विनय पत्रिका में रूपकों, सांगरूपकों और आम जीवन के बिम्बों के माध्यम से जो एकनिष्ठ भक्ति की धारा बही है उसमें नहाकर किसी भी काव्यरसिक का मन मग्न हो उठेगा।  

 विनय पत्रिका विनय के साथ नीति के पदों से भी भरी है , यथा-

"हे हरि! यह भ्रम की अधिकाई। 

देखत सुनत  कहत समुझत संसय संदेह न जाई।।"


तुलसीदास की कवितावली सात्विक आक्रोश और  समाज की दुर्व्यवस्था को लेकर, इसकी रूढ़ियों-आडम्बरों को लेकर क्रांतिकारी  विचारों से ओतप्रोत है। इसकी प्रासंगिकता सर्वकालिक है।   कुछ बानगी देखिये -


"धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहो कोऊ। 

काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ। 

तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहे कछु ओऊ। 

माँगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ।। 

(चाहे कोई धूर्त कहे, चाहे कोई जोगी कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, जिसकी जो इच्छा हो वह वही कहे। न तो मुझे किसी की बेटी से बेटे का ब्याह करना है और न ही किसी की जाति बिगाड़नी है। तुलसी रामजी का सेवक है, गुलाम है।  मैं मांग कर खाऊंगा और किसी देवालय (मंदिर या मस्जिद ) में सो लूंगा।  न किसी से मुझे कुछ लेना है न देना।  )


वहीं गीतावली में रामकथा सुंदर गीतों में कही गयी है। राम-सीता के ब्याह का वर्णन देखें-

" दूलह राम, सीय दुलही रे !

घन -दामिनि-बर बरन, हरन-मन सुंदरता नखसिख निबही रे। '' 


वहीं वनवास के समय पति के साथ जाने की बात करती सीता गार्हस्थ्य धर्म के सख्य मर्म को सहज शब्दों में व्याख्यायित करती है।  

"कहौ तुम्ह बिनु गृह मेरो कौन काजु?

बिपिन कोटि सुरपुर सामान मोको जापैं पिय परिहर्यो राजु। "

अर्थात, सीता जी राम जी से कहती हैं की आप ही बताएं की आपके बिना मेरा इस घर में क्या काम है।  यदि प्रिय ने राज्य त्याग किया है और वन में रहने का संकल्प लिया है तो जंगल मेरे लिए करोड़ो स्वर्ग के समान सुखकर है। 

भरत मिलाप का चित्रकूट प्रसंग भी अत्यंत मार्मिक है।  'भए, न हैं, न होहिंगे कबहूँ भुवन भरत से भाई।'- भरत को भ्रातृत्व धर्म का चरमोत्कर्ष दिखाया गया है।  लक्ष्मण को शक्तिबाण लगने के प्रसंग के गीत -'मेरो सब पुरुषारथ थाको' में राम के मानवीय चरित्र का हृदयस्पर्शी चिंतन है।  

तुलसीदास के ये तीनों रत्न ग्रन्थ और उनकी टीका का आप लोग भी आनंद लें। विनय पत्रिका के ही पदों से अपनी बात को विराम दूंगा-

" लाभ कहा मानुष तनु पाये। 

काय बचन मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये।।

मनुष्य का शरीर पाकर भी क्या लाभ यदि मन, वाणी और शरीर किसी के उपकार के काम न आये। 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बादलों के घेरे में

"एक शेर अपना, एक पराया" में दुष्यंत कुमार के शेरों का काफिला

आत्ममुग्धता