प्रभाकर सिन्हा की कविता पुस्तक ओ अहर्निश प्यास

 कवि के प्रथम गंभीर प्रयास में उनकी वर्षों की साधना दिखती है । बोधि प्रकाशन जयपुर ने इसे सादगी पूर्ण सुंदरता से छापा है ।


संग्रह की शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां मर्मस्पर्शी लगीं -

"मैं तुम्हारे मौन का विस्तार लेकर, 

प्रार्थना में हाथ जोड़े,

रिक्त होने की डगर पर , 

शून्य अर्पित कर रहा हूं,

अर्थ के बल पर खड़े ये शब्द

मेरे बोध से लड़ते नहीं अब ।


मैं तुम्हारे दिव्य रथ पर

पार्थ के उद्दाम यौवन की छवि में,

युद्ध का समवेत स्वर अब सुन रहा हूं ।

आस्था बलवंत है अब 

भय तिरोहित हो चुका है ।"


मां पर लिखी कविता में भी कई अनूठे बिंब और अर्थ छवियां है-

'झंझावातों के बीच / एक सुखद एकांत थी मां।'


हिंदी गजलों में हालांकि   गजलों के तकनीकी पहलुओं की बंदिशों से  कुछ छूट ली गयी है, पर कुछ पंक्तियां काफी अच्छी बन पड़ी है जैसे-

"जीतकर सुख समेट लेते हैं ,

हारकर दुख बटोर लेते हैं ।


बंजर जमीं पे आज भी, कंकड़ बनी फसल, 

दरिया हुआ है कैद, हिफाजत के नाम पर ।"


ओ अहर्निश प्यास के प्रिय कवि प्रभाकर जी को उनके सार्थक कविकर्म हेतु शुभकामनाएं ।




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