अँधेरे में इक दिया जलाता हूँ

अँधेरे में इक दिया जलाता हूँ |
मैं रौशनी के लिए खुद को मिटाता हूँ ||

जहां सारी उम्मीदें हताश हो आयी |
वहां मैं, दुआ बन के काम आता हूँ ||

ग़मों से मुरझाई हुई इस दुनिया में |
खुशी की कोई खबर लाता हूँ ||

सूख पतझड़ से गया हो जो चमन |
वहां मैं बन के बहार छाता हूँ ||

चंद आँखों में नींद क्या सपने न बचे |
वक्त बदलेगा, उन्हें ढाढस दिलाता हूँ ||

रोज फुटपाथ पर गुमशुदा ख्वाब मिलते हैं |
मैं खोये ख्वाबों को आँखों से मिलाता हूँ ||

बच्चों-जैसे चाँद मांग बैठती है ये दुनिया |
इसे मैं रंग-बिरंगे भुलावों से बहलाता हूँ ||

Saturday, May 07, 2011

टिप्पणियाँ

Kailash Sharma ने कहा…
चंद आँखों में नींद क्या सपने न बचे |
वक्त बदलेगा, उन्हें ढाढस दिलाता हूँ ||

बहुत सार्थक सोच..सुन्दर भावपूर्ण रचना..
रोज फुटपाथ पर गुमशुदा ख्वाब मिलते हैं |
मैं खोये ख्वाबों को आँखों से मिलाता हूँ ||

बहुत खूब ...अच्छी गज़ल
M VERMA ने कहा…
बेहतरीन गज़ल
सूख पतझड़ से गया हो जो चमन
वहां मैं बन के बहार छाता हूँ ....

बहुत खूब शेर हैं इस ग़ज़ल के .... लाजवाब ...

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