जलाओ जलाओ और जलाओ। जितनी मर्जी तुम्हारी होलिका जलाओ । हाँ, आ गई थी अपने दुष्ट भाई की बातों में; भोले प्रह्लाद को छल से मारने के षड्यंत्र में । मगर, एक नारी थी मैं ; नहीं सह पाया मन अपने भतीजे या, एक बच्चे को जिंदा जलाने की पीड़ा । हां, बैठी थी उसे लेकर लपलपाती चिता पर , अपना अग्नि क्षम वस्त्र ओढ़ कर , मगर जब आग लगाई गई और लगा कि- अब भोले प्रह्लाद की जान जाने ही वाली है- जाग उठी ममता मेरी, सोई थी जो कुंभकर्णी निंद्रा में । सर्वस्व त्याग का वो पुण्य क्षण था, जब मैंने अपनी अग्निरोधी चादर प्रह्लाद को उढ़ा दी, और खुद को लपलपाती अग्नि की लपटों के हवाले कर दिया । पुत्र प्रह्लाद तो आंखें मूंदे अपने आराध्य विष्णु की उपासना में लीन था । देखने वालों को लगा मानों दैवी चमत्कार से मेरी चादर आ गई प्रह्लाद के ऊपर और हहाती अग्नि की लपटों के बीच भी बाल भी बांका न हुआ उस नन्हें विष्णुभक्त का ; और उन्होंने सोचा की पापिन होलिका जल मरी। तब से लेकर आज तक, लोग होलिका के जल मरने और प्रह्लाद के बचने की खुशी में मनाते हैं होलिका दहन । और, हर साल न जाने कितनी महिलाएं बच्चे जला दिए जाते हैं इसी सहृदय समाज में...