शासन से अपना गिला भी क्या

शासन से अपना गिला भी क्या ?
व्यवस्था से हमें मिला भी क्या ?

भूख हमेशा आयी हमारे ही हिस्से ,
बदहाली का ऐसा सिलसिला भी क्या ?

भूख से एक बच्चे ने दम तोड़ दिया ,
सुनके फाइल तो दूर, पत्ता तक हिला भी क्या ?

कितने बगीचों को तुमने तबाह किया ,
मगर एक फूल तुमसे आजतक खिला भी क्या?

तुमको वोट दिया, तुमने चोट दी बदले में |
ये बताओ, बेमुरव्वती का ऐसा सिला भी क्या?

बेबसों की आह को कैद करके रख सके,
कहो मियां, है ऐसा कोई किला भी क्या?

एक जिन्दा है, एक है पत्थर मगर,
ठोकरें नियति है, नारी क्या शिला भी क्या?

मुद्दतें हो गयी हैं हमको तौबा किये,
आज दिल है, साकी सोच मत, पिला भी क्या.

टिप्पणियाँ

Ashish (Ashu) ने कहा…
बहुत खूब केशवेन्द्र जी..
शासन प्रशासन के बारे मे आप से अच्छा कॊन जान सकता हे..
ये शासन और प्रसाशन का संगम ही इस व्योस्था को बनाता है. सामाजिक विवशता पर व्यंगात्मक कृति बहुत सुन्दर लगी..




आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
shikha varshney ने कहा…
रचना में मार्मिकता और आक्रोश दोनों झलक रहा है जो स्वाभाविक भी है.
प्रभावशाली अभिव्यक्ति.
KESHVENDRA IAS ने कहा…
आशीष जी, आशुतोष जी ओर शिखा जी, रचना को पढ़ने ओर सराहने के लिए आप सबों का शुक्रिया.

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