धर्म की आंच पर सिक रही राजनीति की रोटियाँ


२०-८-२०१२

धर्म की आंच पर सिक रही राजनीति की रोटियाँ |

हर कोई फिट कर रहा अपनी- अपनी गोटियाँ ||



व्यवस्था का बूढ़ा गिद्ध है हरपल चौकन्ना |

जनता जिसे दिखती है बोटियाँ-ही-बोटियाँ ||



अपने ही देश में, लोग बेगाने हुए |

दर-दर भटक रहे बनके घुमंतू भोटियाँ ||



दल-दल के दांत है दिखाने के और ही |

मगर हमाम में सब, यार हैं  लँगोटियाँ ||

---केशवेंद्र ---








टिप्पणियाँ

Fani Raj Mani CHANDAN ने कहा…
व्यवस्था का बूढ़ा गिद्ध है हरपल चौकन्ना |
जनता जिसे दिखती है बोटियाँ-ही-बोटियाँ ||

यह बूढा गिद्ध कब तक भूखा रहेगा पता नहीं...

सुन्दर प्रस्तुति!!!
Anupama Tripathi ने कहा…
समसामायिक ,सारगर्भित ...गहन अभिव्यक्ति ...!!
शुभकामनायें ...!!
RatheeshNirala ने कहा…
अच्छी कविता। शब्दों की ताकत महसूस होती है।
RatheeshNirala ने कहा…
अच्छी कविता। शब्दों की ताकत महसूस होती है।

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