ग़ज़ल - आजतक कदर न की पैसे की


 
आजतक कदर न की पैसे की |

और कहता रहा-तेरी ऐसे की, तैसे की ||

 

दुनिया देख-देख के सर धुनती है |

क्या करे समझ का मुझ जैसे की ||

 

बीन बजा-बजा के लोग हार गए |

समझ में आए तब ना कुछ भैंसे की ||

 

दुनिया जलती है बहुत, मेहनत देखती है नहीं |

पूछती फिरती है, ‘इतनी तरक्की कैसे की’ ?

 

मुस्कानें बांटीं, गम बटोरे और चलते रहे |

जिन्दगी हमने अपनी गुजर-बसर ऐसे की ||

टिप्पणियाँ

Rajendra kumar ने कहा…
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.
Rajeysha ने कहा…
कट गई, समझ ही नहीं आई
जिंदगी बसर, ऐसे वैसे जैसे तैसे की

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