ग़ज़ल - आजतक कदर न की पैसे की
आजतक कदर न की पैसे की |
और कहता रहा-तेरी ऐसे की, तैसे की ||
दुनिया देख-देख के सर धुनती
है |
क्या करे समझ का मुझ जैसे की ||
बीन बजा-बजा के लोग हार गए |
समझ में आए तब ना कुछ भैंसे की ||
दुनिया जलती है बहुत, मेहनत
देखती है नहीं |
पूछती फिरती है, ‘इतनी
तरक्की कैसे की’ ?
मुस्कानें बांटीं, गम बटोरे
और चलते रहे |
जिन्दगी हमने अपनी गुजर-बसर
ऐसे की ||
टिप्पणियाँ
जिंदगी बसर, ऐसे वैसे जैसे तैसे की