प्रेम का सच-झूठ

(मन्नू भंडारी जी और उनकी कहानी 'यही सच है' को समर्पित)

प्रेम में हम कह नही सकते
यही सच है और वह है झूठ
बस यही कह सकते की या तो
सभी सच है या सभी है झूठ.

प्रेम पाखी के परों में
एक पर है सुख असीम
और दूजा पर है उसका
वेदना निस्सीम.

प्रेम का है एक पहलु
सहज, साम्य,निर्विकार,
और उसका दूजा पहलू
वासना-तृष्णा का ज्वार.

प्रेम सागर की सतह पर
मन लहर बन डोलता बैचैन होकर
वहीँ गहराई में उसकी
मुक्त आत्मा शांत है सब अहम् खोकर.

प्रेम का जो सच है
सच वो जिन्दगी का भी
प्रेम के जो संशय
संशय वे जिंदगी के भी.

प्रेम में पाना नही कुछ
प्रेम में खोना नही कुछ
प्रेम में बस प्रेम का विस्तार
ही होता है सबकुछ.

टिप्पणियाँ

सत्य सरोज ने कहा…
बहुत ही उत्तम रचना
एक कवि मन ही इसको समझ सकता है

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