खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा

खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा |
है क्या वजह, क्या दे रहा हूँ खुद को मैं कोई सजा ||

शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली |
देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया ||

मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया ||

आँखें दुनिया से बंद कर मैं खुद में ही सिमटा रहा |
औरों को परवा नहीं, पर, मैं ना ऐसे में मैं रहा ||

खुद से खुद को ये नसीहत देना अब है लाजमी |
पीठ है अब तक दिखाई, अब दिखा, सीना तना |

टिप्पणियाँ

सुन्दर भावना जीवन को समते हुए आकर्षक कविता..
Smart Indian ने कहा…
@ अब दिखा, सीना तना |
प्रेरणादायक!
KESHVENDRA IAS ने कहा…
आशुतोष जी ओर अनुराग जी, आप दोनों का आभार रचना को पढ़ने और उसपर प्रत्रिक्रिया देने के लिए.
हरकीरत ' हीर' ने कहा…
शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली |
देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया ||

क्या बात है ....
बिलकुल नया प्रयोग ....
बहुत खूब .....!!
Dr Varsha Singh ने कहा…
मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया |

यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
हार्दिक शुभकामनायें।
Satish Saxena ने कहा…
ईमानदारी से किया आत्म विवेचन....
शुभकामनायें !
मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया |

बहुत सुंदर भावनाओं को समेटे हुए शब्द संयोजन...
बहुत खूब
Khare A ने कहा…
sudnar gazal janab,
badhai kabule
Unknown ने कहा…
मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया ||

Ati Sundar!!!
अनूप शुक्ल ने कहा…
बहुत खूब! खासकर आखिरी वाला शेर! :)

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