खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा
खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा |
है क्या वजह, क्या दे रहा हूँ खुद को मैं कोई सजा ||
शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली |
देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया ||
मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया ||
आँखें दुनिया से बंद कर मैं खुद में ही सिमटा रहा |
औरों को परवा नहीं, पर, मैं ना ऐसे में मैं रहा ||
खुद से खुद को ये नसीहत देना अब है लाजमी |
पीठ है अब तक दिखाई, अब दिखा, सीना तना |
है क्या वजह, क्या दे रहा हूँ खुद को मैं कोई सजा ||
शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली |
देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया ||
मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है |
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया ||
आँखें दुनिया से बंद कर मैं खुद में ही सिमटा रहा |
औरों को परवा नहीं, पर, मैं ना ऐसे में मैं रहा ||
खुद से खुद को ये नसीहत देना अब है लाजमी |
पीठ है अब तक दिखाई, अब दिखा, सीना तना |
टिप्पणियाँ
प्रेरणादायक!
देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया ||
क्या बात है ....
बिलकुल नया प्रयोग ....
बहुत खूब .....!!
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया |
यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
हार्दिक शुभकामनायें।
शुभकामनायें !
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया |
बहुत सुंदर भावनाओं को समेटे हुए शब्द संयोजन...
बहुत खूब
badhai kabule
खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया ||
Ati Sundar!!!