स्वामी प्रेम डूबे-युधिष्ठिर संवाद
यक्ष-युधिष्ठिर संवाद की समाप्ति पर युधिष्ठिर ने यक्ष से अपनी एक व्यक्तिगत जिज्ञासा रखी-
"हे महाज्ञानी यक्ष, मानव चिरकाल से जानता आया है कि प्रेम सारे दुखों के मूल में है, सारे साहित्य का सार यही है कि प्रेम का वियोग पक्ष ही प्रबल है, फिर भी सब-कुछ जानते हुए भी मानव इस प्रेम कि दलदल में डूबने को क्यूँ आतुर हो उठता है?
यक्ष ने पहले अपनी दाढ़ी खुजाई, फिर सर पर जो थोड़े-मोड़े बाल बचे थे उनको खुजाया और फिर एकाएक उनको सारे बदन में खुजली होने लगी. पूरे जीवन में इतना खुजाने वाला सवाल उन्हें आजतक नही मिला था. अंत में थक-हार कर अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए यक्ष ने कहा-
"हे धर्मराज युधिष्ठिर, प्रेम के सन्दर्भ में मेरा ज्ञान बड़ा ही सीमित है. मानव प्रेम के जिस भावनात्मक पहलू को लेकर आंसुओं का समंदर बहा देते है, उससे हमारा पाला नही पड़ता. हम यक्ष गण तो स्वछंद विहार और भोग-विलास में विश्वास रखते है. हमें तो कभी-कभी यह देख कर घोर आश्चर्य होता है कि मानव एक नारी के पीछे इस तरह उन्मत्त और पागल कैसे हो उठता है,जबकि भूलोक पर नारियों की कोई कमी नहीं. मेरी व्यक्तिगत राय में इस तरह का प्रेम बेवकूफी के सिवा कुछ नही. हाँ, अगर आप इस प्रश्न में इतने ही ज्यादा उत्सुक है तो मैं आपको स्वामी प्रेम डूबे का पता देता हूँ. स्वामीजी ने प्रेम का गहन अध्ययन-मनन-विश्लेषण करके प्रेम के चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया है. वो शायद आपकी शंका का समाधान कर सके.
युधिष्ठिर ने ख़ुशी-ख़ुशी यक्ष से स्वामी प्रेम डूबे का पता लिया और फिर जा पहुंचे उनके पास. वैसे भी अज्ञातवास चल रहा था और उनके पास समय-ही-समय था. स्वामीजी ने युधिष्ठिर का स्वागत करते हुए कहा कि अहोभाग्य हमारा कि प्रेम से दस कोस दूर भागनेवाला धर्म आज प्रेम कि कुटिया में पधारा. युधिष्ठिर ने उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताया. स्वामीजी के चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान बिखरी और वे युधिष्ठिर को अपनी आलीशान महलनुमा कुटिया के साधना कक्ष में ले गए. फिर अपने आसन पर आँख मूंद कर बैठे उन्होंने स्वामीनुमा धीर-गंभीर आवाज में युधिष्ठिर से पूछा-
"कहो वत्स, मैं कहाँ से तुम्हारी शंका के समाधान कि शुरुआत करूं."
युधिष्ठिर ने विनीत स्वर में कहा-"हे स्वामी महाराज, मैं आपके मुखारविंद से प्रेम के चार ध्रुव सत्य और उनकी व्याख्या चाहूँगा.
स्वामीजी का चेहरा थोड़ा खिला, लम्बी-सी दाढ़ी थोड़ी हिली, मूछें फडकी और फिर मंद गति से होठों ने खुलते हुए प्रेम के ध्रुव सत्य और उनकी व्याख्या पर प्रवचन शुरू किया.
स्वामीजी उवाचे-हे युधिष्ठिर, प्रेम का पहला ध्रुव सत्य बड़ा सीधा-सरल है. वह यह है कि-
"प्रेम मानव जीवन का ध्रुव सत्य है. प्रेम करना इंसान की विवशता है. मानव मन प्रेम करने के लिए ही बना है. तुमने देवताओं या यक्षों को अपवादस्वरूप ही प्रेम करते देखा होगा, वे भोग-विलास और काम-क्रीडा का सुख-भोग करने को बने है. मानव में भी कुछ लोग उनका अनुकरण करने कि कोशिश करते है, पर उनका मन सदैव असंतुष्ट, दुखी और छटपटाता हुआ रहता है.
फिर मानवों में भी बहुत से लोग प्रेम से भागने या बचने कि कोशिश करते है, लेकिन प्रेम उन्हें कहाँ छोड़ने वाला है. कहीं-ना-कहीं उन्हें धर ही दबोचता है. कभी-कभी तो उन्हें अहसास तक नही होता कि वे कितने खतरनाक तरीके से प्रेम के पंजे में फंसे है.
फिर स्वामी जी ने उदहारण देते हुए कहा, युधिष्ठिर अपने पास से ही श्री कृष्ण जी का उदाहरण ले लो. सोचो, भगवन विष्णु का अवतार होते हुए भी मानव का तन धारण करने के कारण वे प्रेम की भूल-भुलैयां में फंसे हुए है. कभी राधा, कभी रुक्मिणी तो कभी गोपियाँ. अब इससे आप स्पष्टरूप में समझ सकते है कि मानव तन धारण करने पर प्रेम से निस्तार नही है.
युधिष्ठिर ने अर्जुन के प्रेम-प्रसंगों के बरे में मन-ही-मन सोचते हुए सहमति में सर डुलाया.
फिर स्वामीजी ने अल्पविराम लेते हुए युधिष्ठिर के चेहरे को एक बार निहारा और वहां संतुष्टि की गदगद मुद्रा को देख अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले-
"हे धर्मराज, प्रेम का दूसरा ध्रुव सत्य यह है कि प्रेम करने से दुःख कि प्राप्ति होती है.
युधिष्ठिर अकचकाए से बोल पड़े-"महाराज, यह बात तो मुझे बड़ी उलटी प्रतीत होती है. आदमी सुख पाने को प्रेम करता है, अगर इसमें दुःख मिले तो आदमी प्रेम ही क्यूँ करे ?"
स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई-" हे युधिष्ठिर, यह सच है कि मानव सुख कि तलाश में प्रेम करता है पर, यह भी उतना ही सच है कि प्रेम में जो भी सुख है वो प्रेम की तलाश में ही है, प्रेम की प्राप्ति के बाद नही. जिस प्रेम के पौधे पर संयोग के फूल आते है, वह बस एक ऋतु का पौधा होता है. वहीँ जिस प्रेम के पौधे में वियोग के फूल आते है उसमे हर साल पीले उदास फूल आते रहते हैं.
स्वामीजी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे बोले-"प्रेम का दुःख मानव के हर दुःख के मूल में है. प्रेम में सफल व्यक्ति इस बात से दुखी रहते हैं कि उनका प्रेम पहले जैसा नही रहा, वहीँ प्रेम में असफल व्यक्ति अपनी असफलता से दुखी और निराश रहते हैं. प्रेम में दुखी व्यक्ति अनुपयोगी, अनुत्पादक और असामाजिक हो जाते हैं. सारे साहित्यकार और दार्शनिक इसी श्रेणी के प्राणी होते हैं.
युधिष्ठिर ने अपनी आपत्ति प्रकट कि,"महाराज, सारे साहित्यकारों-दार्शनिकों को इस प्रेम-दुखी श्रेणी में रखना कहाँ तक उचित है?"
स्वामीजी ने कहा," युधिष्ठिर, पूरे भूलोक का साहित्य पलट कर देख लो- प्रेम में दुखी आत्माओं का क्रंदन सर्वत्र दिखेगा. और दर्शन क्या है, प्रेम में दुखी आत्माओं द्वारा वैकल्पिक दुनिया और वैकल्पिक सत्य की खोज का खोखला प्रयास और अपने दुःख को उदात्त दिखने कि कोशिश के सिवा."
इस आवेशपूर्ण वक्तृता के बाद स्वामीजी ने अपने वाक अंगों को थोड़ा आराम देने कि सोची और अपने गले को सहलाने लगे.
चिर जिज्ञासु युधिष्ठिर ने स्वामी जी के विराम को भंग करते हुए पूछा,'और महाराज, प्रेम का तीसरा ध्रुव सत्य क्या है?
स्वामीजी ने क्षणिक अवकाश के बाद बोलना शुरू किया-"हे युधिष्ठिर, प्रेम का यही तीसरा ध्रुव सत्य है जो प्रेम के सारे खतरों के बावजूद प्रेम को महत्ता को स्थापित करता है. यह सत्य इस प्रकार है की प्रेम का दुःख ज्ञान कि तलाश को प्रेरित करता है और यही ज्ञान मनुष्य को सारे दुखों से मुक्ति दिलाता है. "
फिर युधिष्ठिर को समझाते हुए स्वामीजी बोले-" वत्स, प्रेम एक उन्माद या नशे कि तरह होता है. जबतक इसका सुरूर चढ़ा है, तबतक तो आदमी बदमस्त रहता है, पर नशा उतरने पर व्यर्थताबोध का अहसास बड़ा तीव्र और मारक होता है. यह बोध व्यक्ति को अपने अन्दर झाँकने को, खुद को खोजने को प्रेरित करता है. प्रेम की बहिर्मुखी यात्रा पर निकला व्यक्ति ठोकर खाकर मुड़ता है और फिर ज्ञान कि अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है. इस अंतर्यात्रा से अर्जित ज्ञान व्यक्ति को बताता है कि उसने जो प्रेम किया था वह वाकई में अपने को जानने कि दिशा में पहला और अनिवार्य कदम था. और इस बोध के साथ व्यक्ति प्रेम और जीवन के सारे सुखद-दुखद अनुभवों से ऊपर उठ समदर्शी अवस्था में पहुँच जाता है.
स्वामीजी ने युधिष्ठिर के चेहरे की ओर देखा. युधिष्ठिर के चेहरे पर अभी वैसा ही भाव था जैसा प्राथमिक पाठशाला के बच्चे के चेहरे पर वेड-वेदांत का प्रवचन सुन कर आये. स्वामीजी ने अपनी बात को उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहा,"युधिष्ठिर, सती द्वारा अपने पति शिव के अपमान से क्षुब्ध हो कर अपने पिता दक्ष के हवन कुंड में अपनी जान दे देने के बाद महादेव शिव कि अवस्था को याद करो. पागल और उन्मत्त की तरह दुःख के असीम, अथाह,अनंत सागर में डूबे सती के शव को अपने कन्धों पर लिए प्रलयातुर महादेव की छवि प्रेम के दुःख से दुखी आत्मा का सबसे सच्चा उदाहरण है. पर प्रेम के इस दुःख ने शिव के अंतर्ज्ञान और समदर्शीपन को और बढाया ही. इस दुःख से उबर कर उन्होंने फिर पार्वती जी से प्रेम और शादी की. इस उदाहरण से बिलकुल स्पष्ट है कि प्रेम का दुःख लघुकाल में दुःख देने वाला पर दीर्घकाल में ज्ञान फल की प्राप्ति के रूप में सुख देने वाला होता है.
धर्मराज युधिष्ठिर काफी देर तक स्वामी प्रेम डूबे के इन गूढ़ वचनों की जुगाली करते रहे. स्वामीजी की बातें पहले तो उन्हें चौंका रही थी पर जैसे ही जुगाली कर-कर के वे इन बातों को हजम करने में सफल होते थे, उन्हें लगता था कि प्रेम के सारे रहस्य उनके सामने खुलते जा रहे हैं. चंचल उत्सुकता के साथ युधिष्ठिर ने स्वामीजी को देखते हुए मानों नयनों कि मूक भाषा में प्रेम के चौथे ध्रुव सत्य पर आने का आग्रह किया.
और फिर अपने गुरु-गंभीर स्वर में स्वामीजी बोले-'हे वत्स! प्रेम का चौथा ध्रुव सत्य जितना सरल दीखता है, उतना ही गूढ़ है. एक तरह से यह प्रेम के हर सच का सार-संक्षेप है. एक तरफ तो तुम्हे ऐसा महसूस होगा कि इसके भाष्य कि कोई जरुरत नही है वहीँ दूसरी तरफ यह भी लगेगा कि यह अभाष्येय है. प्रेम का यह चौथा ध्रुव सत्य है कि- "प्रेम मुक्ति नही है, प्रेम में मुक्ति नही है पर प्रेम से मुक्ति भी नही है.
फिर अपनी बात को समझाते हुए स्वामीजी बोले, 'मुक्ति या मोक्ष कि जो तलाश हमारे धर्मं ग्रंथों में है, प्रेम वह नही है. प्रेम मोक्ष या निर्वाण कि तरह नही है जिसको पा लेने से जीवन की साध मिट जाये. बल्कि प्रेम तो और जीवन कि चाह को उसके सीमांत तक बढ़ा देता है.'
अपनी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए स्वामीजी बोले,' प्रेम करते हुए भी मुक्ति का अहसास नही है क्योंकि प्रेम सच्चा हो या झूठा उसमे छटपटाहट,तड़प, बैचैनी इतनी मात्रा में होते हैं कि प्रेमी प्रेम के सिवा और किसी भी कार्य को करने की हालत में नही रहता. प्रेम करना एक शाश्वत बैचैनी में जीना है.'
फिर, स्वामीजी प्रेम के चौथे ध्रुव सत्य की आखिरी कड़ी को उठाते हुए बोले,"युधिष्ठिर, प्रेम मुक्ति मार्ग कि ना तो मंजिल है और ना ही उसका सफ़र; पर मानव कि नियति यह है कि उसे प्रेम से छुटकारा नही मिल सकता. उसे अपने इस जीवन में एक-ना-एक बार प्रेमपथ से गुजरना ही पड़ेगा. प्रेम से इंसान चाहे लाख दूर रहने कि कोशिश करे, पर किसी-ना-किसी रूप में प्रेम उसे अपने बंधन में बांधेगा जरुर. सच में देखो तो युधिष्ठिर, ये सृष्टि ही प्रेममयी है. प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम ही व्यापक होकर सृष्टि के हर प्रेम में अपनी झलक दिखाता है. मानव को तो छोडो, भगवान तक प्रेम के भूखे हैं. अतएव मानव शरीर धारण कर कोई यह दावा नही कर सकता कि उसका दिल प्रेम-प्रूफ है. प्रेम मानव जीवन कि अटल नियति है, उससे कोई बच नही सकता."
युधिष्ठिर के मन में उठ रही सारी जिज्ञासाएं स्वामी प्रेम डूबे के उत्तरों से शांत हो चुकी थी. ख़ुशी-ख़ुशी स्वामीजी की चरणरज ले कर वे अपने अज्ञातवास निवास पहुचे. उसके बाद युधिष्ठिर ने द्रौपदी और सारे पांडवों को प्रेम के चार ध्रुव सत्य कि शिक्षा दी. जैसे, स्वामी प्रेम डूबे की इस प्रेममय शिक्षा के बाद पांडवों के दिन द्रौपदी के साथ बड़े प्रेम से कटे, वैसे ही इस कहानी के सभी पाठकों-श्रोताओं का जीवन प्रेममय गुजरे.
"हे महाज्ञानी यक्ष, मानव चिरकाल से जानता आया है कि प्रेम सारे दुखों के मूल में है, सारे साहित्य का सार यही है कि प्रेम का वियोग पक्ष ही प्रबल है, फिर भी सब-कुछ जानते हुए भी मानव इस प्रेम कि दलदल में डूबने को क्यूँ आतुर हो उठता है?
यक्ष ने पहले अपनी दाढ़ी खुजाई, फिर सर पर जो थोड़े-मोड़े बाल बचे थे उनको खुजाया और फिर एकाएक उनको सारे बदन में खुजली होने लगी. पूरे जीवन में इतना खुजाने वाला सवाल उन्हें आजतक नही मिला था. अंत में थक-हार कर अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए यक्ष ने कहा-
"हे धर्मराज युधिष्ठिर, प्रेम के सन्दर्भ में मेरा ज्ञान बड़ा ही सीमित है. मानव प्रेम के जिस भावनात्मक पहलू को लेकर आंसुओं का समंदर बहा देते है, उससे हमारा पाला नही पड़ता. हम यक्ष गण तो स्वछंद विहार और भोग-विलास में विश्वास रखते है. हमें तो कभी-कभी यह देख कर घोर आश्चर्य होता है कि मानव एक नारी के पीछे इस तरह उन्मत्त और पागल कैसे हो उठता है,जबकि भूलोक पर नारियों की कोई कमी नहीं. मेरी व्यक्तिगत राय में इस तरह का प्रेम बेवकूफी के सिवा कुछ नही. हाँ, अगर आप इस प्रश्न में इतने ही ज्यादा उत्सुक है तो मैं आपको स्वामी प्रेम डूबे का पता देता हूँ. स्वामीजी ने प्रेम का गहन अध्ययन-मनन-विश्लेषण करके प्रेम के चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया है. वो शायद आपकी शंका का समाधान कर सके.
युधिष्ठिर ने ख़ुशी-ख़ुशी यक्ष से स्वामी प्रेम डूबे का पता लिया और फिर जा पहुंचे उनके पास. वैसे भी अज्ञातवास चल रहा था और उनके पास समय-ही-समय था. स्वामीजी ने युधिष्ठिर का स्वागत करते हुए कहा कि अहोभाग्य हमारा कि प्रेम से दस कोस दूर भागनेवाला धर्म आज प्रेम कि कुटिया में पधारा. युधिष्ठिर ने उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताया. स्वामीजी के चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान बिखरी और वे युधिष्ठिर को अपनी आलीशान महलनुमा कुटिया के साधना कक्ष में ले गए. फिर अपने आसन पर आँख मूंद कर बैठे उन्होंने स्वामीनुमा धीर-गंभीर आवाज में युधिष्ठिर से पूछा-
"कहो वत्स, मैं कहाँ से तुम्हारी शंका के समाधान कि शुरुआत करूं."
युधिष्ठिर ने विनीत स्वर में कहा-"हे स्वामी महाराज, मैं आपके मुखारविंद से प्रेम के चार ध्रुव सत्य और उनकी व्याख्या चाहूँगा.
स्वामीजी का चेहरा थोड़ा खिला, लम्बी-सी दाढ़ी थोड़ी हिली, मूछें फडकी और फिर मंद गति से होठों ने खुलते हुए प्रेम के ध्रुव सत्य और उनकी व्याख्या पर प्रवचन शुरू किया.
स्वामीजी उवाचे-हे युधिष्ठिर, प्रेम का पहला ध्रुव सत्य बड़ा सीधा-सरल है. वह यह है कि-
"प्रेम मानव जीवन का ध्रुव सत्य है. प्रेम करना इंसान की विवशता है. मानव मन प्रेम करने के लिए ही बना है. तुमने देवताओं या यक्षों को अपवादस्वरूप ही प्रेम करते देखा होगा, वे भोग-विलास और काम-क्रीडा का सुख-भोग करने को बने है. मानव में भी कुछ लोग उनका अनुकरण करने कि कोशिश करते है, पर उनका मन सदैव असंतुष्ट, दुखी और छटपटाता हुआ रहता है.
फिर मानवों में भी बहुत से लोग प्रेम से भागने या बचने कि कोशिश करते है, लेकिन प्रेम उन्हें कहाँ छोड़ने वाला है. कहीं-ना-कहीं उन्हें धर ही दबोचता है. कभी-कभी तो उन्हें अहसास तक नही होता कि वे कितने खतरनाक तरीके से प्रेम के पंजे में फंसे है.
फिर स्वामी जी ने उदहारण देते हुए कहा, युधिष्ठिर अपने पास से ही श्री कृष्ण जी का उदाहरण ले लो. सोचो, भगवन विष्णु का अवतार होते हुए भी मानव का तन धारण करने के कारण वे प्रेम की भूल-भुलैयां में फंसे हुए है. कभी राधा, कभी रुक्मिणी तो कभी गोपियाँ. अब इससे आप स्पष्टरूप में समझ सकते है कि मानव तन धारण करने पर प्रेम से निस्तार नही है.
युधिष्ठिर ने अर्जुन के प्रेम-प्रसंगों के बरे में मन-ही-मन सोचते हुए सहमति में सर डुलाया.
फिर स्वामीजी ने अल्पविराम लेते हुए युधिष्ठिर के चेहरे को एक बार निहारा और वहां संतुष्टि की गदगद मुद्रा को देख अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले-
"हे धर्मराज, प्रेम का दूसरा ध्रुव सत्य यह है कि प्रेम करने से दुःख कि प्राप्ति होती है.
युधिष्ठिर अकचकाए से बोल पड़े-"महाराज, यह बात तो मुझे बड़ी उलटी प्रतीत होती है. आदमी सुख पाने को प्रेम करता है, अगर इसमें दुःख मिले तो आदमी प्रेम ही क्यूँ करे ?"
स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई-" हे युधिष्ठिर, यह सच है कि मानव सुख कि तलाश में प्रेम करता है पर, यह भी उतना ही सच है कि प्रेम में जो भी सुख है वो प्रेम की तलाश में ही है, प्रेम की प्राप्ति के बाद नही. जिस प्रेम के पौधे पर संयोग के फूल आते है, वह बस एक ऋतु का पौधा होता है. वहीँ जिस प्रेम के पौधे में वियोग के फूल आते है उसमे हर साल पीले उदास फूल आते रहते हैं.
स्वामीजी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे बोले-"प्रेम का दुःख मानव के हर दुःख के मूल में है. प्रेम में सफल व्यक्ति इस बात से दुखी रहते हैं कि उनका प्रेम पहले जैसा नही रहा, वहीँ प्रेम में असफल व्यक्ति अपनी असफलता से दुखी और निराश रहते हैं. प्रेम में दुखी व्यक्ति अनुपयोगी, अनुत्पादक और असामाजिक हो जाते हैं. सारे साहित्यकार और दार्शनिक इसी श्रेणी के प्राणी होते हैं.
युधिष्ठिर ने अपनी आपत्ति प्रकट कि,"महाराज, सारे साहित्यकारों-दार्शनिकों को इस प्रेम-दुखी श्रेणी में रखना कहाँ तक उचित है?"
स्वामीजी ने कहा," युधिष्ठिर, पूरे भूलोक का साहित्य पलट कर देख लो- प्रेम में दुखी आत्माओं का क्रंदन सर्वत्र दिखेगा. और दर्शन क्या है, प्रेम में दुखी आत्माओं द्वारा वैकल्पिक दुनिया और वैकल्पिक सत्य की खोज का खोखला प्रयास और अपने दुःख को उदात्त दिखने कि कोशिश के सिवा."
इस आवेशपूर्ण वक्तृता के बाद स्वामीजी ने अपने वाक अंगों को थोड़ा आराम देने कि सोची और अपने गले को सहलाने लगे.
चिर जिज्ञासु युधिष्ठिर ने स्वामी जी के विराम को भंग करते हुए पूछा,'और महाराज, प्रेम का तीसरा ध्रुव सत्य क्या है?
स्वामीजी ने क्षणिक अवकाश के बाद बोलना शुरू किया-"हे युधिष्ठिर, प्रेम का यही तीसरा ध्रुव सत्य है जो प्रेम के सारे खतरों के बावजूद प्रेम को महत्ता को स्थापित करता है. यह सत्य इस प्रकार है की प्रेम का दुःख ज्ञान कि तलाश को प्रेरित करता है और यही ज्ञान मनुष्य को सारे दुखों से मुक्ति दिलाता है. "
फिर युधिष्ठिर को समझाते हुए स्वामीजी बोले-" वत्स, प्रेम एक उन्माद या नशे कि तरह होता है. जबतक इसका सुरूर चढ़ा है, तबतक तो आदमी बदमस्त रहता है, पर नशा उतरने पर व्यर्थताबोध का अहसास बड़ा तीव्र और मारक होता है. यह बोध व्यक्ति को अपने अन्दर झाँकने को, खुद को खोजने को प्रेरित करता है. प्रेम की बहिर्मुखी यात्रा पर निकला व्यक्ति ठोकर खाकर मुड़ता है और फिर ज्ञान कि अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है. इस अंतर्यात्रा से अर्जित ज्ञान व्यक्ति को बताता है कि उसने जो प्रेम किया था वह वाकई में अपने को जानने कि दिशा में पहला और अनिवार्य कदम था. और इस बोध के साथ व्यक्ति प्रेम और जीवन के सारे सुखद-दुखद अनुभवों से ऊपर उठ समदर्शी अवस्था में पहुँच जाता है.
स्वामीजी ने युधिष्ठिर के चेहरे की ओर देखा. युधिष्ठिर के चेहरे पर अभी वैसा ही भाव था जैसा प्राथमिक पाठशाला के बच्चे के चेहरे पर वेड-वेदांत का प्रवचन सुन कर आये. स्वामीजी ने अपनी बात को उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहा,"युधिष्ठिर, सती द्वारा अपने पति शिव के अपमान से क्षुब्ध हो कर अपने पिता दक्ष के हवन कुंड में अपनी जान दे देने के बाद महादेव शिव कि अवस्था को याद करो. पागल और उन्मत्त की तरह दुःख के असीम, अथाह,अनंत सागर में डूबे सती के शव को अपने कन्धों पर लिए प्रलयातुर महादेव की छवि प्रेम के दुःख से दुखी आत्मा का सबसे सच्चा उदाहरण है. पर प्रेम के इस दुःख ने शिव के अंतर्ज्ञान और समदर्शीपन को और बढाया ही. इस दुःख से उबर कर उन्होंने फिर पार्वती जी से प्रेम और शादी की. इस उदाहरण से बिलकुल स्पष्ट है कि प्रेम का दुःख लघुकाल में दुःख देने वाला पर दीर्घकाल में ज्ञान फल की प्राप्ति के रूप में सुख देने वाला होता है.
धर्मराज युधिष्ठिर काफी देर तक स्वामी प्रेम डूबे के इन गूढ़ वचनों की जुगाली करते रहे. स्वामीजी की बातें पहले तो उन्हें चौंका रही थी पर जैसे ही जुगाली कर-कर के वे इन बातों को हजम करने में सफल होते थे, उन्हें लगता था कि प्रेम के सारे रहस्य उनके सामने खुलते जा रहे हैं. चंचल उत्सुकता के साथ युधिष्ठिर ने स्वामीजी को देखते हुए मानों नयनों कि मूक भाषा में प्रेम के चौथे ध्रुव सत्य पर आने का आग्रह किया.
और फिर अपने गुरु-गंभीर स्वर में स्वामीजी बोले-'हे वत्स! प्रेम का चौथा ध्रुव सत्य जितना सरल दीखता है, उतना ही गूढ़ है. एक तरह से यह प्रेम के हर सच का सार-संक्षेप है. एक तरफ तो तुम्हे ऐसा महसूस होगा कि इसके भाष्य कि कोई जरुरत नही है वहीँ दूसरी तरफ यह भी लगेगा कि यह अभाष्येय है. प्रेम का यह चौथा ध्रुव सत्य है कि- "प्रेम मुक्ति नही है, प्रेम में मुक्ति नही है पर प्रेम से मुक्ति भी नही है.
फिर अपनी बात को समझाते हुए स्वामीजी बोले, 'मुक्ति या मोक्ष कि जो तलाश हमारे धर्मं ग्रंथों में है, प्रेम वह नही है. प्रेम मोक्ष या निर्वाण कि तरह नही है जिसको पा लेने से जीवन की साध मिट जाये. बल्कि प्रेम तो और जीवन कि चाह को उसके सीमांत तक बढ़ा देता है.'
अपनी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए स्वामीजी बोले,' प्रेम करते हुए भी मुक्ति का अहसास नही है क्योंकि प्रेम सच्चा हो या झूठा उसमे छटपटाहट,तड़प, बैचैनी इतनी मात्रा में होते हैं कि प्रेमी प्रेम के सिवा और किसी भी कार्य को करने की हालत में नही रहता. प्रेम करना एक शाश्वत बैचैनी में जीना है.'
फिर, स्वामीजी प्रेम के चौथे ध्रुव सत्य की आखिरी कड़ी को उठाते हुए बोले,"युधिष्ठिर, प्रेम मुक्ति मार्ग कि ना तो मंजिल है और ना ही उसका सफ़र; पर मानव कि नियति यह है कि उसे प्रेम से छुटकारा नही मिल सकता. उसे अपने इस जीवन में एक-ना-एक बार प्रेमपथ से गुजरना ही पड़ेगा. प्रेम से इंसान चाहे लाख दूर रहने कि कोशिश करे, पर किसी-ना-किसी रूप में प्रेम उसे अपने बंधन में बांधेगा जरुर. सच में देखो तो युधिष्ठिर, ये सृष्टि ही प्रेममयी है. प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम ही व्यापक होकर सृष्टि के हर प्रेम में अपनी झलक दिखाता है. मानव को तो छोडो, भगवान तक प्रेम के भूखे हैं. अतएव मानव शरीर धारण कर कोई यह दावा नही कर सकता कि उसका दिल प्रेम-प्रूफ है. प्रेम मानव जीवन कि अटल नियति है, उससे कोई बच नही सकता."
युधिष्ठिर के मन में उठ रही सारी जिज्ञासाएं स्वामी प्रेम डूबे के उत्तरों से शांत हो चुकी थी. ख़ुशी-ख़ुशी स्वामीजी की चरणरज ले कर वे अपने अज्ञातवास निवास पहुचे. उसके बाद युधिष्ठिर ने द्रौपदी और सारे पांडवों को प्रेम के चार ध्रुव सत्य कि शिक्षा दी. जैसे, स्वामी प्रेम डूबे की इस प्रेममय शिक्षा के बाद पांडवों के दिन द्रौपदी के साथ बड़े प्रेम से कटे, वैसे ही इस कहानी के सभी पाठकों-श्रोताओं का जीवन प्रेममय गुजरे.
टिप्पणियाँ
It's really very nice.