मुंबई और मेलबोर्न
साथियों, एक कच्ची-सी कविता आपके सामने रख रहा हूँ, जान-बूझकर इसे पकाया नही क्यूंकि यह कविता महत्वपूर्ण नही, विषय महत्वपूर्ण है. प्रवासियों के मुद्दे पर इस दोहरे मापदंड पर आप लोगों के विचारों का इंतजार रहेगा. अपने ही देश में पराये बनते लोगों की पीड़ा को देश की जनता की सकारात्मक और मानवीय सोच ही मिटा सकती है.
हे मुंबई के महामहिम नेता!
काश की तुम या तुम्हरा कोई सगा
आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रही
नस्लीय हिंसा का शिकार होता;
तब शायद तुम समझ पाते
यूपी, बिहार और भारत के कोने-कोने से
पढाई, रोजगार या किसी और मरीचिका के पीछे
मुंबई में आकर झोपड़पट्टियों या
माचिस के डिब्बों जैसी काल-कोठरियों में
जैसा-तैसा जीवन गुजारते लोगों की
भय, विवशता और बेबसी को.
शायद फिर तुम कभी नही बांटते मुंबई को
मेरी-तेरी के सींखचों में.
कहते यही तुम कि मुंबई तो हमारी है.
कहते तुम कि मुंबई तो हर उस की है
जो दिल-और-जान से इसका है.
काश कि तुम एक बार
नेता की जगह,
इंसान बन कर सोचते!
हे मुंबई के महामहिम नेता!
काश की तुम या तुम्हरा कोई सगा
आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रही
नस्लीय हिंसा का शिकार होता;
तब शायद तुम समझ पाते
यूपी, बिहार और भारत के कोने-कोने से
पढाई, रोजगार या किसी और मरीचिका के पीछे
मुंबई में आकर झोपड़पट्टियों या
माचिस के डिब्बों जैसी काल-कोठरियों में
जैसा-तैसा जीवन गुजारते लोगों की
भय, विवशता और बेबसी को.
शायद फिर तुम कभी नही बांटते मुंबई को
मेरी-तेरी के सींखचों में.
कहते यही तुम कि मुंबई तो हमारी है.
कहते तुम कि मुंबई तो हर उस की है
जो दिल-और-जान से इसका है.
काश कि तुम एक बार
नेता की जगह,
इंसान बन कर सोचते!
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