बादलों के घेरे में
कृ ष्णा सोबती जी मेरी सबसे प्रिय लेखिकाओं में एक हैं और उनके सारे रचना संसार में “बादलों के घेरे” मेरी सबसे प्रिय कहानी है. इस कहानी में प्यार की जो करुण कथा है, वो पाठकों के मन में मानों धुंध भरी उदासी बन कर बस जाती है. इस कहानी को पढते हुए मन में जो भावनाएँ उमड़ी थी, उन्हें इससे पहले भी इक बार कविता में ढाला था पर वो कहीं गुम गई है. फिर से इस कहानी को हाल में पढते हुए इसे गीत में ढलने की कोशिश की है. यह रचना कृष्णा सोबती जी और उनके लेखन को समर्पित है. प्रयास कैसा रहा, इसे जानने की उत्कंठा रहेगी.. बादलों के घेरे में दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || घिर रही यादों की घटा मन की पहाड़ी घाटियों में, और रह-रह कर हैं आंसू छलके पड़ते चेहरे पर, यादों की है रील फिरती मन के पटल पर बार-बार, तुम-ही-तुम बस याद आते, ओ मेरे पहले प्यार | दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || दरस पा कर के तुम्हारा, चाहना जागी थी मन में, इक सुमधुर हृदय थी, थी मगर अभिशप्त तन में; एक डोर खींचती
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