"एक शेर अपना, एक पराया" में दुष्यंत कुमार के शेरों का काफिला
इस पोस्ट में मैं हिंदी ग़ज़ल को एक नए मुकाम पर पहुचने वाले और आपातकाल की तानाशाही के खिलाफ जनता को झकझोरने वाले शायर दुष्यंत कुमार के कुछ पसंदीदा शेर और उनकी तर्ज़ पर लिखे अपने शेर पेश करूँगा. पेशकश कैसी लगी. यह आपसे जानने की प्रतीक्षा रहेगी.
१. मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ, पर कुछ कहता नही,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार.
---दुष्यंत कुमार----
घृणा से मुझे घूर कर पूछा वो पूछा ख्वाहिश आखिरी
हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'.
----केशवेन्द्र कुमार----
२. सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं.
---दुष्यंत कुमार---
इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा
आशिक तो हैं हम भी तेरे, होंगे मगर जोगी नहीं.
---केशवेन्द्र कुमार----
३. जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
----दुष्यंत कुमार----
आँख में जम गया है अँधेरा परत-दर-परत
और कितना इंतजार बाकी है सहर के लिए.
----केशवेन्द्र----
४. ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नही था, आपको धोखा हुआ होगा.
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.
----दुष्यंत कुमार----
जिधर देखो उधर चीखें, कराहें, प्राथनाएँ हैं
कोई सुनता नही, लगता है खुदा बहरा हुआ होगा.
जख्म दिल के हमने बरसों से छूकर के नही देखे,
जख्म क्या ठीक होगा, और भी गहरा हुआ होगा.
----केशवेन्द्र कुमार---
५. कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों!
---दुष्यंत कुमार---
मन के सैलाब में दुनिया को बहा सकते हो
दिल के अरमानों को बाहर तो निकालो यारों!
----केशवेन्द्र--
६. मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
---दुष्यंत कुमार---
इस देश के विधि-विधानों के क्या कहने, यहाँ
मारे गए तो कुछ नही, पर आत्महत्या मना है.
----केशवेन्द्र----
७. मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ.
----दुष्यंत कुमार----
कोई चीख है चुप-चुप सी, कोई दर्द गहरी नदी-सी
यूँ ही नही मैं नींदें गवां ग़ज़ल कह रहा हूँ.
-----केशवेन्द्र----
८. रोज जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी,
एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है.
-----दुष्यंत कुमार---
दो सूखी रोटियां जुटा लेते हैं दो वक़्त जैसे-तैसे
करोड़ों लोगों का इस देश में ऐसे भी गुजर होता है.
-----केशवेन्द्र----
९. खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख्वाब,
फिरता है चांदनी में कोई सच डरा-डरा
-----दुष्यंत कुमार----
होठों पे दुनिया को दिखलाने की खातिर
खुशियाँ सजा रखी है, पर है दिल भरा-भरा.
------केशवेन्द्र---
१. मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ, पर कुछ कहता नही,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार.
---दुष्यंत कुमार----
घृणा से मुझे घूर कर पूछा वो पूछा ख्वाहिश आखिरी
हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'.
----केशवेन्द्र कुमार----
२. सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं.
---दुष्यंत कुमार---
इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा
आशिक तो हैं हम भी तेरे, होंगे मगर जोगी नहीं.
---केशवेन्द्र कुमार----
३. जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
----दुष्यंत कुमार----
आँख में जम गया है अँधेरा परत-दर-परत
और कितना इंतजार बाकी है सहर के लिए.
----केशवेन्द्र----
४. ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नही था, आपको धोखा हुआ होगा.
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.
----दुष्यंत कुमार----
जिधर देखो उधर चीखें, कराहें, प्राथनाएँ हैं
कोई सुनता नही, लगता है खुदा बहरा हुआ होगा.
जख्म दिल के हमने बरसों से छूकर के नही देखे,
जख्म क्या ठीक होगा, और भी गहरा हुआ होगा.
----केशवेन्द्र कुमार---
५. कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों!
---दुष्यंत कुमार---
मन के सैलाब में दुनिया को बहा सकते हो
दिल के अरमानों को बाहर तो निकालो यारों!
----केशवेन्द्र--
६. मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
---दुष्यंत कुमार---
इस देश के विधि-विधानों के क्या कहने, यहाँ
मारे गए तो कुछ नही, पर आत्महत्या मना है.
----केशवेन्द्र----
७. मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ.
----दुष्यंत कुमार----
कोई चीख है चुप-चुप सी, कोई दर्द गहरी नदी-सी
यूँ ही नही मैं नींदें गवां ग़ज़ल कह रहा हूँ.
-----केशवेन्द्र----
८. रोज जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी,
एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है.
-----दुष्यंत कुमार---
दो सूखी रोटियां जुटा लेते हैं दो वक़्त जैसे-तैसे
करोड़ों लोगों का इस देश में ऐसे भी गुजर होता है.
-----केशवेन्द्र----
९. खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख्वाब,
फिरता है चांदनी में कोई सच डरा-डरा
-----दुष्यंत कुमार----
होठों पे दुनिया को दिखलाने की खातिर
खुशियाँ सजा रखी है, पर है दिल भरा-भरा.
------केशवेन्द्र---
टिप्पणियाँ
हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'.
superb lines... i like this.. carry on ur sensitive xpression.. good luck..