पानी-पानी रे...

                                        
                                 'पानी-पानी रे...'-पानी बाबा राजेंद्र सिंह त्रिशूर, केरल में
                                                         (07Dicember2009)

दिसम्बर  के महीने में केरल के त्रिशूर जिले में UNICEF  और जिला प्रशासन  की साझेदारी में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के एक पहलू जल और स्वच्छता को लेकर परिचर्चा का आयोजन किया गया था जिसमे मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे हमारे अपने पानी बाबा- मैग्सेसे  अवार्ड से सम्मानित राजेंद्र सिंह जी. भव्य प्रशांत मुखमंडल वाले इस महान कर्म योगी की गहरी पनियाई आँखें बता रही थी इस शख्श के समंदर जैसे व्यक्तित्व की गहराई को.  सभा में और भी बहुत सारे विद्वतापूर्ण भाषण हुए पर मेरा मानों सारा ध्यान पानी बाबा पर ही केन्द्रित था और मैं उनके भाषण को सुनने की उत्सुक प्रतीक्षा कर रहा था.


और जब वो घड़ी आई तो हिंदी में अपनी बात को रखते राजेंद्र जी को सुनना एक अनूठा अनुभव बन कर रह गया.  एक अहिन्दीभाषी राज्य में बड़े आत्मविश्वास के साथ हिंदी में बोलते हुए जब राजेन्द्रजी ने कहा की मुझे मलयालम बहुत प्यारी लगती है पर आती नही, अंग्रेजी आती है पर बोलने में जो दिल से बात निकलती है वो हिंदी में ही निकलती है, तो मन गदगद हो उठा. और जब उन्होंने कहा की दिलों के बीच भाषा की दीवारें नही होती तो सारे मलयाली लोग भी खुश हो उठे.  फिर राजेन्द्रजी अपने दिल के विषय पानी पर आये.  कहा कि पानी को समझना और पानी को प्यार से जीना जीवन के लिए जरुरी है.  44  नदियों के राज्य केरल की प्यार से चर्चा करते हुए वे इस बात से व्यथित दिखे की केरल की नदियाँ  बुरी तरह से प्रदूषित हो रही है.


और फिर उन्होंने अपनी चमत्कारी-सी दिखने वाली सफलता की दास्ताँ सुनाई -राजस्थान में सात मृत नदियों को पुनर्जीवित करने की अपनी महागाथा. उनका जीवन भी प्रेरणा की एक खुली किताब है- कैसे एक आयुर्वेदिक डॉक्टर  के मन में समाजसेवा का जूनून आया और उसमे  भी गाँव वालों के पलायन को रोकने  के लिए पानी की समस्या को सुलझाने का काम हाथ में लिया उसने.  और गाँव वालों के सहयोग और युवाओं की मदद से उन्होंने सात मृत पड़ी नदियों को पुनर्जीवित करने का भागीरथ कार्य कर दिखाया.  उनकी भाषा  और कहने के रोचक अंदाज़ की तो बात ही निराली थी. जैसे जब वे सवाल पूछते है की राजस्थान में पानी का सबसे बड़ा चोर कौन है  और फिर जवाब देते हैं- सूरज, तो श्रोताओं को निश्चित ही बड़ा मजा आता है.  फिर जब वे बड़े ही लयात्मक अंदाज़ में अपना जल संरक्षण का फंडा  समझाते हैं कि दौड़ते पानी को चलना सिखाओ, चलते पानी को रेंगना सिखाओ, रेंगते पानी को धरती में छुपा दो ताकि चोर सूरज की नजर ना पड़े उस पर; और जब जरुरत हो तो उसे निकाल  कर जीवन बचा लो-तो मानों जनजीवन के मुहावरे में एक चित्र मूर्तिमान हो उठता है. जब  उन्होंने अपने प्रस्तुतीकरण में राजस्थान में 1985  के समय के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों और सूखी नदियों कि तस्वीरें दिखाई और उन्ही जगहो की पानी और हरियाली से भरी वर्तमान तस्वीरें दिखाई तो सच में लगा कि  यह किसी चमत्कार से  कम नही.


राजेंद्र जी ने अपने संवाद में और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये जिसमे सबसे अहम् जल प्रबंधन  की प्रणालियों को लेकर था.  उन्होंने कहा की क्या कारण है की भारत के अधिकांश शहर पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं, क्या कारण है की सरकार जानता को स्वच्छ पेयजल तक उपलब्ध नही करा पा रही है?  सरकार की तरफ से बहाने दिए जाते हैं की ऐसा बेतहाशा बढ़ी जनसंख्या के कारण हो रहा है या फिर अमुक कारण से हो रहा है पर असलियत है की ऐसा इसलिए हो रहा है की इंजीनियरों  और नागरिक समाज के बीच काफी अलगाव और दूरी आ गयी है. पहले के ज़माने में भी काफी बड़े शहर थे हमारे देश में और वहां जल प्रबंधन काफी उत्कृष्ट था. जैसे उन्होंने गढ़ सीसर तालाब का उदहारण दिया. राजस्थान में स्थित  इस तालाब को उस ज़माने में शहर की पानी की जरुरत को पूरा करने में उपयोग किया जाता था. तालाब में हाथी और घोडा बने हुए हैं. ये शिल्प की सजावट के लिए नही वरन जल प्रबंधन के लिए बनाये गए थे. हाथी के पैरों तक पानी होने का मतलब की शहर की एक साल की जरुरत का पानी उपलब्ध है और उसके सर तक पानी होने का मतलब की दो साल की जरुरत का पानी उपलब्ध है.  इस उदाहरण को सामने रखकर उन्होंने बताया की समय की कसौटी पर खड़ी उतरी स्थानीय देशज जल संरक्षण की प्रणालियों को अपनाये जाने की जरुरत है. पुराने जल संरक्षण की प्रणालियों को जीवित करने के साथ-साथ नयी प्रणालियों को भी विकसित किया जाना चाहिए.  इस सन्दर्भ में भूमिगत जल का स्तर बनाये रखने के लिए जोहड़ और तालाब की भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डाला. सुनते हुए प्रख्यात पर्यावरणवादी अनुपम मिश्र की किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' का स्मरण हो आया जिसके बारे में मैंने बहुत पढ़ा है पर जिसे दुर्भाग्यवश अभी तक नही पढ़ पाया हूँ.


पानी की चर्चा करते हुए जब राजेन्द्रजी राजस्थान की महिलाओं की पानी लाने में किये जा रहे श्रम और कष्ट को बता रहे थे तो लगा की भाग्यवान हैं वो लोग जिन्हें जीवन की इस सबसे बड़ी जरुरत के लिए मशक्कत नही करनी पड़ती. देश के कई कोनो की उन महिलाओं की पीड़ा सोचिये जिन्हें सर पर बर्तन लेकर मीलों की यात्रा बस पानी जुटाने के लिए करनी पड़ती है, उन किशोरियों की सोचिये जो पानी की इस मज़बूरी की वजह से विद्यालय जाने से वंचित रह जाती  हैं. उस पीड़ा को अपने मन में  मूर्त कर सके तो बिसलेरी की बोतलों से पानी पीते हुए पानी की समस्या पर गंभीर विमर्श करते हम लोगों को पानी की समस्या शायद समझ में आये.


कई और भी सार्थक और गहन बाते कही राजेंद्र जी ने, साधारण सी लगने वाली असाधारण बाते- जैसे 'पानी का व्यवसाय तो हर कोई कर सकता है पर पानी कोई बना नही सकता.' नेताओं द्वारा इस अतिगंभीर मुद्दे की अवहेलना का दर्द भी उनकी बातों में बार-बार झलक रहा था. मरती या प्रदूषित होती नदियों के दर्द के प्रति किसी का भी ध्यान ना जाने की पीड़ा उनके चेहरे और उनके स्वर से झांक रही थी. वे प्लास्टिक की सभ्यता  और आधुनिक जीवनशैली द्वारा बढ़ते प्रदूषण और इस वजह से नदियों के जीवन के सामने उपस्थित आसन्न खतरे के प्रति बड़े गंभीर और चिंतित थे. उनका कहनाथा की पानी पर मनुष्य, पशुओं और पेड़ों का सामान अधिकार है और हमें इन सब के लिए पानी को बचाना होगा.

राजेंद्र जी के शब्दों में पर्यावरण और जल से संबंधित समस्याओं का "कोपनहेगन जैसी जगहों से समाधान नही निकलेगा, समाधान निकलेगा त्रिशूर जैसी जगहों से." वे देशज प्रद्धति से जल और पर्यावरण की समस्याओं से निपटने की बात कर रहे थे. उनका कहना था की पर्यावरण की परवाह किये बिना  लाए गए बड़े-बड़े बांध जैसे प्रोजेक्ट Displacement , Disaster  और Drought के सिवा कुछ नही लाते.  उनका कहना था की  नदियों के प्रदूषण को समझ, समाज को उन्हें प्रदूषण मुक्त बनाने की जिम्मेदारी उठानी होगी. रिवर बेसिन प्रबंधन के बाद ही नदी से जुडी किसी-भी  परियोजना को मूर्त रूप दिया जाये, इसकी निगरानी करनी होगी.  पानी पंचायत और पानी संसद बना कर पानी की लड़ाई को मुख्यधारा की लड़ाई बनाना उन्होंने अभी के वक़्त की जरूरत बताया. अगर हम पानी को बचाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी से अभी चूके तो अगला विश्वयुद्ध निश्चय ही पानी को लेकर होगा, ये उनकी भविष्यवाणी थी. वाकई भारत के ही कई शहरों, राज्यों में पानी को लेकर जो हाहाकार मचा है और विश्व के कई हिस्से में कई देशों में पानी को लेकर जो नदी जल बटवारे के विवाद चल रहे हैं, वे इस भविष्यवाणी  के सच हो सकने की आशंका जताते हैं...अगर हम नही चेते.


पानी के ऊपर इस सारे संवाद को सुनते हुए 4-5 साल पहले  बिहार की बाढ़ के ऊपर लिखी अपनी चंद पंक्तियाँ याद आती रही. लीजिए, आप सबों की  खिदमत में पेश है वे पंक्तियाँ-
देख पानी की तांडव लीला आँख में भर आये पानी
पानी ने लीली ना जाने कितनी ही जिंदगानी
पानी कहीं जिन्दगी है, यहाँ मौत है पानी
पानी कहीं ख़ुशी है, यहाँ सोग है पानी.

वाकई,  पानी की लीला महान है, एक और तो बिन पानी जीना दुश्वार है, दूसरी और कोसी की प्रलयंकारी बाढ़  के भुक्तभोगियों से पूछे या फिर सुनामी की तांडव नृत्य करती लहरों में अपना सब कुछ लुटाने वाले लोगों से पूछिये...उनके लिए पानी के मायने अलग है. वाकई जिस पानी में इस सृष्टि के प्रथम जीवन का सृजन हुआ, वही पानी इस सृष्टि के हर जीवन को जिलाए रखने का भी हेतु है और अगर हम उसका यूँ ही दुरूपयोग करते रहे तो वह इस सृष्टि के हर जीवन को नष्ट करने की भी क्षमता रखती है.  पानी को प्यार करना, पानी को समझना और पानी को बचाना हमारे जीवन के ही लिए नही वरन दुनिया के हर जीवधारी के जीवन को बचाए रखने के लिए जरुरी है. दोस्तों, आइये हम भी जल संरक्षण की दिशा में कुछ सोचे, कुछ करे...बूँद-बूँद से घड़ा भरता है, ये पानीदार कहावत तो शायद सबके जहन में होगी ही... हम भी पानी की चंद बूँद बचाए, पानी के बाजारीकरण को रोकने की दिशा में प्रयास करे,नदियों-तालाबों को प्रदूषण मुक्त करने और उन्हें बचाने में अपना योगदान दे और इस सन्दर्भ में जागरूकता फैलाकर जल संरक्षण के इस परमावश्यक अभियान में अपनी भागीदारी दर्ज करे.   क्यूंकि पानी की उपलब्धता यूँ ही घटते-घटते अगर चुल्लू-भर ही पानी बचा और हम लोग दुर्भाग्य से उस समय तक जीवित बचे तो हमारे पास उस चुल्लू-भर पानी में डूब मरने के सिवा कोई चारा नही बचेगा.

टिप्पणियाँ

Pawan Kumar ने कहा…
केशव भाई
बहुत ही अच्छा लेख......आपने बिलकुल सही कहा है.....जल संरक्षण पर राजेंद्र सिंह जी का यह आन्दोलन वाकई सराहनीय है.......पानी को बचने की मुहिम जरूरी है, जागरूकता अभी से होनी चाहिए, देर से चेतने में खतरे बहुत हैं............. वरना तीसरा विश्व युद्ध अगर पानी के लिए होने की बात कही जा रही है वो कहीं से गलत नहीं है........ !
KESHVENDRA IAS ने कहा…
पवन भाई, आपने इस आलेख को पढ़ा और सराहा ये मेरे लिए ख़ुशी की बात है. इस अनुभव को सब के साथ शेयर करना चाहता था तो लिख डाला. ब्लॉग के अलावा और लिखने-पढने में क्या हो रहा है? मुझे तो यहाँ हिंदी की किताबें या पत्रिकाएँ नही मिल पाती हैं, डाक से मंगाना होगा फिर से लग रहा है..

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