फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं.
दोस्तों, ब्लोगों की दुनिया से दूर ऑरकुट में भी कुछ communities में काफी रचनात्मक संभावनाएं दिखती है. ऑरकुट में ऐसी है एक प्यारी कम्युनिटी है महकार-ऐ-शफक. इस कम्युनिटी ने इधर पिछले एक महीने में मुझे लिखने के लिए काफी प्रेरणा दी है और मैं शुक्रगुजार हूँ इस समुदाय का. तो लीजिए पेश है ख्वाबों पर चली इस समुदाय की बतकही की प्रेरणा से लिखी मेरी ताजा-तरीन ग़ज़ल-
"फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं. "
इंसान ख़ुदकुशी कहाँ करते हैं
वो तो ख्वाबों की मौत मरते हैं.
इस पेड़ के नीचे ना खड़े हो दोस्त मेरे
इससे पीले उदास पत्ते झड़ते हैं.
अपने गम में होते हैं बहोत तन्हा
हर गम औरों का जो हरते हैं
ख्वाबों की लाशों से अटी-पटी ये दुनिया
फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं.
अपनी ऊँगली की पोरों से यूँ छुओ ना हमको
ऐसे छूने से हम सिहरते हैं.
ख्वाबों की मौत का पता नही चलता
ख्वाब इतनी ख़ामोशी से मरते हैं.
"फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं. "
इंसान ख़ुदकुशी कहाँ करते हैं
वो तो ख्वाबों की मौत मरते हैं.
इस पेड़ के नीचे ना खड़े हो दोस्त मेरे
इससे पीले उदास पत्ते झड़ते हैं.
अपने गम में होते हैं बहोत तन्हा
हर गम औरों का जो हरते हैं
ख्वाबों की लाशों से अटी-पटी ये दुनिया
फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं.
अपनी ऊँगली की पोरों से यूँ छुओ ना हमको
ऐसे छूने से हम सिहरते हैं.
ख्वाबों की मौत का पता नही चलता
ख्वाब इतनी ख़ामोशी से मरते हैं.
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