जीवन का ये ही अफसाना
२६-११-२०११  जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||   जीवन की गति परिचित सी है,  पथ सारे जाने-पहचाने,  पंख मिले हैं हम सब को,  पर भूल गए है पर फैलाना |   जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||   रिश्तों के सोते सूखे हैं,  घर-अपने पीछे छूटे हैं ,  पैसे की दीमक ने शुरू किया है,  घर की दीवारों को खाना |   जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||   माँ –बाबूजी अब गाँवों में,  बेटे शहरों के बाशिंदे;  मोबाइल पर ही अब तो  चलता है रिश्तों का निभाना |   जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||   पिज्जा से अब भूख मिटे है  और पेप्सी से प्यास,  शायद बच्चे भूल ना जाये  कैसा होता  माँ का खाना |   जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||   फेसबुकी इस दुनिया में अब  मिलना भी आभासी है,  जीने को मुल्तवी करते, करके   ‘फुर्सत नहीं है’ का बहाना |   जीवन का ये ही अफसाना |  राग नया है, साज पुराना ||